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________________ 2 शास्त्र के नाम से पहचानते है। मैं यहां पर आपको जो विचार या विशुद्धि बतलाऊंगा, उसका विशेष सम्बन्ध ऐसे ही लिपिबद्ध जैन साहित्य-शास्त्रों के साथ है। जैन शास्त्र की पूर्ण उत्तर दायिता उसके मूल जनक, ग्रन्थक, या संकलित करने वाले पर अवस्थित है। जैन साहित्य के मूल जनक तीर्थङकर, ग्रन्थक, गणधर, लेखक अर्थात् प्रथमतया बहीखाते पर चढ़ाने वालेपुस्तक-कार रूप देने वाले श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणादि पूर्वाचार्य माने जाते हैं। इस विषय को पूर्णतया समझने के लिये हमें इन तीनों महापुरूषों का इतिहास, उनके समय की परिस्थिति और उनकी जीवन दशा पर विचार करने की अवश्यकता है। साम्प्रदायिक ममत्वमयी दृष्टि से कदाचित् जैन शास्त्र अनादि सिद्ध माने जाते हों या अकृत्रिम व अपरिवर्तित रहते हों तो इससे हमें कोई आपत्ति नहीं। यह बात ऐतिहासिक हो या उसमे साम्प्रदायिकता - अन्य सत्यासत्य का तत्व मिला हुआ हो इसके साथ हमारा कोई विशेष सम्बन्ध नहीं। तथापि जहा तक मैं जानता हूं शास्त्रो की शाश्वतता सिद्ध करने वाला - सम्प्रदाय भी इतनी बात स्वीकृत करने की हिम्मत करता है कि जिस जिस तीर्थडकर के समय उनके विचार शब्दबद्ध होते है उसवक्त उसमें पूर्वकाल की स्थिति और नामों की जगह वर्तमान काल की स्थिति और नामों को नियुक्त किया जाता है। ● सम्प्रदाय की तो ऐसी भी इच्छा हो सकती है कि हमारे ही शास्त्र सब से अनादि हैं याने हमारी दुकान और हमारा बहीखाता पृथ्वी के साथ ही निर्माण हुआ है। परन्तु वर्धमान के नाम पर प्रचलित प्रवचन में जगह जगह उनके समय की परिस्थिति, उनका पचयामी आचार, उनके समय के मनुष्यों के उल्लेख और उन्होंकी स्वाध्याय चर्चा, उनके सम समयी जमाली, गोशालक, हस्ती तापस और बुद्धदेव जैसे प्रखर वादियों के खण्डन मण्डनात्मक सवाद, तथा स्कन्दक, सुधर्मा, जम्बू, गौतम श्रेणिक, चेल्लणा, कोणिक, धारणी, सिद्धार्थ, त्रिशला, जयन्ती, मृगावती, सुदर्शन, उदायी, आनन्द, कामदेव, और चूलणी पिता वगैरह वर्धमान के सम समयी अस्तित्व रखने वाले पुरुषों के नाम निर्देश मिलने से सम्प्रदाय को या उसके सचालकों को अपनी अनादिता के बचाव के लिये ही उपर्युक्त उपाय लेना पडा है और उसका उल्लेख सूत्रकृतांग सूत्रकी टीकामें शीलांक सूरिने और व्याख्या प्रज्ञप्तिकी टीकामें अभयदेव सूरिने किया भी है देखो सूत्र० पृ० ३८९ और भगवती पृ० १६५ अजीमगजवाला। यदि इस सम्बन्ध में इतिहास को पूछा जाय तो वह स्पष्टतया और सप्रमाण बतला सकता है कि जैसा वात्स्यायन सूत्र अनादि हो सकता है वैसे ही यह प्रवचन भी अनादि का सम्भवित हो सकता है। }
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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