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________________ जैन साहित्य में विकार वस्तु की मूल स्थिति को समझे बिना उसकी बिकार वाली स्थिति को समझना या समझाना कोई सुगम बात नहीं है। जिसे अपनी पूर्व स्थिति की ताजी स्मृति हो वही मनुष्य अपनी वर्तमान स्थिति में हुये परिवर्तन को समझ सकता है। शरीरिक विकार को समझने के लिये प्रथम पूर्ण निरोग स्थिति का अभ्यास करने की अवाश्यकता होती है। त्रैरूप्य की विभीषिका में से उत्तीर्ण होने के लिये सौन्दर्य के सागर का विशेष अवगाहन करना पडता है, एवं साहित्य की विरूप स्थिति को समझने से पहिले उसकी विशुद्ध स्थिति को भी समझना आवश्यक है। साहित्य कोई हमारे समान बोलने चलने वाला या जीता जागता प्राणी नहीं है इस कारण हम उसकी विशुद्धता या विकृतता का निर्णय उसके पूर्व कर्मपर नहीं छोड़ सकते । साहित्य अन्य पदार्थों के समान उत्पाद्य पदार्थ है इस लिये उसकी शुद्धि या विकृति का जवाबदार उसका उत्पादक ही हो सकता है। जिस तरह पुत्रके गुण दोषों का जवाबदार उसका पिता कहलाता है, और वृक्षका भला या बुरा भविष्य उसके बीजमे छिपकर रहता है वैसे ही साहित्य की विशुद्धता या विकृतता का विशेष आधार उसके रचयिता की स्थिति पर ही अवलम्बित है। भाषा साहित्य शब्द दो तीन अर्थको सूचित करता है। साहित्य शब्द से उपकरण या साधन लिये जाते हैं। साहित्य का अर्थ रस शास्त्र - काव्यप्राकश, काव्यानुशासन, साहित्यदर्पण वगैरह होता है और किसी भी प्रकार के शास्त्र यथा बौद्ध साहित्य, वैदिक साहित्य या सांख्य साहित्यादि भी उसके अर्थ होते है। इस प्रस्तुत चर्चा मेअन्तिम अर्थ को विशेष स्थान मिल सकता है। साहित्य विचारात्मक और शब्दात्मक एव दो रूप मे होता है। जब तक हृदयगत हो, प्रगट न किया गया हो । तब तक वह विचारात्मक साहित्य कहलाता है और जब वह मुखद्वारा शब्दो के तरह-तरह के वस्त्रों में एवं कल्पना, अतिशय या उत्प्रेक्षा वगैरह के अलंकारों में सुसज्ज होकर गगनमडल में प्रगट हो तब वह शब्दात्मक साहित्य कहलाता है और यही शब्दात्मक साहित्य जब कागजों पर लिपि बद्ध किया जाता है, तब इसे
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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