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________________ १. पक्षपाती न में वीरें, न द्वेषः कपिलादिपु । युक्तिमद्वचनम् यस्य तस्यकाये. परिग्रहः ।। २. -श्री हरिभद्र सूरि आग्रहीवत ! निनीपति युक्ति यत्रतंत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्रतत्र मतिरेति निवेशम् ।। ३. निबल, निरुद्यम् निर्धनी, नास्तिक निपट निराश । जड, कादर कर देतु है, नरहिं अन्धविश्वास ।। वियोगी हरि अर्थात् - खेद है कि हठग्राही मनुष्य युक्ति को खींचखीच कर वहाँ लाता है। जहाँ पहिले से उसकी मति ठहरी हुई होती है । परन्तु एक पक्षपात रहित मनुष्य hot at नीति नहीं होती वह अपनी मति को वहाँ ठहराता है जहाँतक युक्ति पहुँचती है अर्थात् उसकी मति आप युक्तिअनुमान होती है ।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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