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अभिहित है। इस शती के कवि आशाराम' और जवाहरदास' की जातियों में चंगवाद के अभिदर्शन होते हैं ।
शनिया - सुनिया या शुनझुना काठ और दिन का बना हुआ तालवाय है जो हिलाने से 'सुनसुन' ध्वनि करता है, इसे 'इसे 'घुनघुना' भी कहते हैं। जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य में इस वाद्य का व्यवहार बीसवीं शती की अथ समुच्चय- लघु-पूजा, रचना में हुआ है ।"
ढोल-ढोल वाक्य है । यह एक लकड़ी का खोल होता है जिसके दोनों पावों में बकरी का चमड़ा मढ़ा होता है। इसे रस्सी से कसा मी जाता है जिससे इसको आबाज में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके। इसकी soft बड़ी दूर तक जाती है ।
लोकगीत गाते समय स्वतंत्र रूप से भी ढोल का प्रयोग किया जाता है । लोकनृत्य में इसका उपयोग उल्लिखित है । सामूहिक नृत्य एवं जन्मोत्सव, विवाह तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर इसका प्रयोग प्रायः होता है। हिन्दी बारहमासा काव्य में भी होली प्रसंग पर ढोल वाक्य का वर्णन मिलता है ।
जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजाकवि व्यानतराय द्वारा
१. ता येई थेई थेई बाजत सितार |
मृदंग बीन मुहचंग सार ॥
तिनकी ध्वनि सुनि भवि होत प्रेम ।
जयकार करत नाचत सु एम ||
- श्री सोनागिरिसिद्धक्षेत्रपूजा, आशाराम, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५४ ।
२. हम हम हमता बजे मृदंग ।
घन घन घंट बजे मुहषंग ||
- श्री अथसमुच्चयलघुपूजा, जवाहरदास, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ
४६६ ।
३. सुन झुनझुनझुन शुनिया शुनं ।
सर सर सर सर सारंगी धुनं ॥
श्री अय समुच्चय लघुपूजा, जवाहरदास, बुहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ४९६ ।