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सांस्कृतिक
संसति सम सम् उपसर्ग के साथ संस्कृत को (इ) 0 (ब) धातु से विनिर्मित है जिसका अर्थ है संस्करण परिमार्जन, शोधन, परिष्करण अर्थात एक ऐसा किया जो व्यक्ति में निर्मलता का संचार करे । संस्कृति समस्त सीले हुए व्यबहार अथवा उस व्यवहार का नाम है जो सामाजिक परम्परा से प्राप्त होता है। संस्कृति प्राय: उन गणों का समुदाय समझी जाती है जो व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं समन बनाते हैं। वस्तुतः धर्म शास्त्रानुमोदित आचार और लोकानमोदित आचार, विश्वास तथा मास्थाएं आदि की समष्टि संस्कृति है। गणित की भाषा में संस्कृति को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं- यथा
आचार+विचार+तालल्य-संस्कृति संस्कृति मानव व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया है। मनुष्य के सुन्दर सूक्ष्म चिन्तन की अभिव्यक्ति है। संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की सर्वोत्तम परिणति है। सृजनात्मक अनुचिन्तन का नाम संस्कृति है । वह मानव जीवन के सर्वग्राह्य आत्मिक जीवन रूपों की सुष्टि है और है उसका उपभोग।' संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। मनुष्य के पास इन्द्रियां मन, बुद्धि और मामा इतनी शक्तियां हैं। प्रत्येक मनुष्य के पास ऐशक्षियों है। मानव की प्रत्येक शक्ति संदित हो सकती है। इस शक्तिसंवर्धन से और संस्कार सम्पनता से मानव का अतिमाम बनना यह संस्कृति १. हिन्दी साहित्य कोल, प्रपम भाग, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि, पृष्ठ ८०१ । २. अशोक के फूल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ ६३ ॥ ३. संसाति का दार्शनिक विवेचन, डॉ. देवराज, पृष्ठ ३० । ४. संस्कृति के चार अध्याय, परिशिष्ट क, डॉ. रामधारी सिंह दिनकर,
पृष्ठ ६५३ ।