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का ध्येय है। इसी को जीव का शिव, नर का नारायण और बुद्ध का सुक्त होना कहते हैं।"
धर्म मानव मात्र के अभ्युक्य और निःश्रयत का साधन है। संस्कृति उस धर्म का क्रियात्मक रूप है। संस्कृति शरीर और मन की शुद्धि के द्वारा मनुष्य को आध्यात्म में प्रतिष्ठित करती है ।" संस्कृति मानवता की प्रतिष्ठाबिका है। यह असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से ज्योति की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर और अनैतिकता से नैतिकता को ओर अग्रसर करती है । भोजन-पान, आहार-बिहार, वस्त्राभूषण, क्रियाकलाप आदि को सुसंस्कृत कर जीवनयापन करना सांस्कृतिक प्रेरणा का प्रतिफल है । मानवता अपने आन्तरिक भाव तत्वों से ही निर्मित होती है और इन भाव तत्वों का विकास मनुष्य की मूलभूत चेष्टाओं द्वारा होता है ।"
संस्कृति अन्तकरण है, सभ्यता शरीर है। संस्कृति अपने को सभ्यता द्वारा व्यक्त करती है । संस्कृति सम्य बौद्धिक उन्नति का पर्यायवाची है तो सभ्यता naa मौतिक विकास का समानार्थक है । संस्कृति का सम्बन्ध मूल्यों के क्षेत्र से है तो सभ्यता का सम्बन्ध उपयोगिता के क्ष ेत्र से । संस्कृति वह साँचा है जिसमें समाज के विचार ढलते हैं। वह बिन्दु है जहाँ जीवन को समस्याएं देखी जाती हैं । वस्तुतः विचार, व्यवहार और आस्थाएं तस्य हैं।
संस्कृति के प्राण
संस्कृति है ।
जिस प्रकार
वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृतियों का समवाय भारतीय भारतीय संस्कृति 'कबलो दण्ड' (कदली काण्ड) के सबुश है। केले का तना एक नहीं होता उसका निर्माण अनेक पतों से होता है । पर्त पर पतं चढ़े रहते हैं उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी कई संस्कृतियों के सम्मिलन से विनिर्मित है। जिस प्रकार समस्त नदी-नयों का जल समुद्र की ओर जाता है उसी प्रकार विभिन्न मार्गों से चलते हुए मनुष्य एक ही गन्तब्य
१. वैदिक संस्कृति के मूलमंत्र, पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, पृष्ठ ४१ ।
२. सर्वात्मदर्शन, डॉ० हरबंसलाल शर्मा शास्त्री, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संवत् २०२६, पृष्ठ २२३ ।
३. आदिपुराण में भारत, डॉ० नेमिचन्द्र जैन, पृष्ठ १६२ ।