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। १४८ ) गरीक्षा देते हैं, अपने दोष प्रकट करने वाले को प्रायश्चित विधि से हर करते है-ऐसे पवित्र माचरण करने और कराने वाले पूज्य आत्मन वस्तुतः माचार्य
उपाध्याय--'उप' उपसर्ग तथा 'अधि' उपसर्ग में 'ई' धातु 'घर' प्रत्यय के योग से उपाध्याय शब्द निष्पन्न है जिसका अर्थ रत्नत्रय तथा धर्मोपदेश को योग्यता रखने वाला है। लोक में प्रचलित 'उपाध्याय' शब्द जाति विशेष का बोध करता है किन्तु जैनधर्म में इसका भिन्न अर्थ है। रत्नत्रय सपा धर्मोपदेश की पोग्यता रखने वाले मुनि को भाचार्य द्वारा पर प्रदान किया जाता है। उपाध्याय मुनि सघ में कर्मोपदेश देते हुए भी निर्विकार रहकर आत्मध्यानादि कार्य करते रहते हैं।'
नशास्त्रों के ज्ञाता होकर संघ में पठन-पाठन के अधिकारी हुए हैं तथा जो ससस्त शास्त्रों का सार आत्मस्वरूप में एकाग्रता है अधिकतर तो उसमें लीन रहते हैं, कभी-कभी कषायांश के उदय से यदि उपयोग वहाँ स्थिर न रहे तो उन शास्त्रों को स्वयं पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैंउपाध्याय कहलाते हैं। ये मुख्यतः द्वादशांग अर्थात् जिनवाणी के पाठी होते है।
साधु-सातनोति परकार्यम् इति साधु अर्थात् साधना करने वाला साधु कहा जाता है। जैन वाङमय में जो सम्यगदर्शन, ज्ञान से परिपूर्ण शुरुचारित्र्य को साधते हैं, सर्वजीवों में 'समभाव को प्राप्त हों' के साधु कहलाते हैं।'
१. जो रयपत्तयजुत्तोणिच्च धम्मोवदेसणेणिर दो।
सोउबज्मामों अप्पाजविवरवसहो णमो तस्स ।। ग्रहदवव्यसग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, श्रीमदराजचन्द्र जंन शास्त्रमाला, अगास, स. २०२२, माथा ५३, पृष्ठांक १६६ ।
२. णिवाण साधए जोगे सदा जुजति साधवो।
सभा सम्वेसु भूदेस तम्हा ते सब साधयो ।' मूलाचा', ५१२। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०३०, पृष्ठांक ४०४ ।