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(१४) ऐसा साधु विरकाल से प्रवजित होता है।' साधु में मट्ठाइस गुण होना मावश्यक है।
वस्तुत: आचार्य, उपाध्याय को छोड़कर अन्य समस्त जो मुनि धर्म के धारक हैं मोर आत्म स्वभाव को चाहते है बाह्य २८ मूल गुणों को मरित पालते हैं, समस्त आरम्भ और अन्तरंग बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं, सवा शानध्यान में लवलीन रहते हैं, सांसारिक प्रपंचों से सगा दूर रहते हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं। चैत्यालय (श्री अकृत्रिमचेत्यालयपूजा)'
'चित' धातु में 'त्य' प्रत्यय होने पर 'चैत्य' सम्म निष्पन्न हुमा, प्रत्य' शब्ब में 'मालय' शब्द सन्धि करने पर 'चैत्यालय' शम्ब बना। पल्प का बर्ष प्रतिमा है-आलय स्थान को कहते हैं। इस प्रकार महाँ प्रतिमा विराजमान हों वह चैत्यालय कहलाता है। चैत्यालय दो प्रकार से कहे गये है, यथा१. चिर प्रवजितः साधुः ।
- सर्वार्थसिद्धि, ६।२४।४४२११०, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४,
जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०३०, पृष्ठांक ४०४। २. पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का रोध, केशलोंच, षट्
आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, बड़े-बड़े भोजन, एक बार आहार ये वास्तव में श्रमणों के अट्ठाईस मूल गुण जिनवर ने --प्रवचनचार, कुदकुदाचार्य, प्रकाशक-- मंत्री श्री सहजानंद शास्त्रमाला, १८५-ए. रणजीतपुरी, सदर, मेरठ, सन् १९७६, श्लोकांक
२०८-२०६, पृष्ठ ३६४ । ३. श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, संगृहीत मंथ-जन पूजापाठ संग्रह,
प्रकाशक-भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ २५१ । ४. श्रीमद्भगवत् सर्ववीतराग प्रतिमाथिष्ठित चैत्यगृहं ।
-बोधपाहुड टीका । ८७६।१३, जैनेन्द्र सिदान्त कोश, भाग २
जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, वि० स० २०२८, पृष्ठ ३०२ । ५. कृत्याकृत्रिम-चारु चैत्यनिलयान नित्यं त्रिलोकीगतान् ।
बंदे भावन-व्यन्तरद्य तिवरान् बनीमरावास गान ।। कृत्रिमाकृत्रिमजिनचत्य पूजाध्यं ।
ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९६६, छंदांक १, • पृष्ठांक ५।