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सिद्ध कहलाता है। सिद्ध तीनों लोक के प्राणियों का हित करने वाले कहे गए हैं।"
वस्तुतः जो गृहस्थ अवस्था का त्यागकर मुनि धर्म साधन द्वारा बार घाति कर्मों का नाश होने पर अनन्त चतुष्टय प्रकट करके कुछ समय बाद मधाति कर्मों के नाश होने पर समस्त अन्य द्रव्यों का सम्बन्ध छूट जाने पर पूर्ण मुक्त हो गये हैं, लोक के अग्रभाग में किंचित न्यून पुरुषाकार बिराजमान होगये हैं, जिनके द्रव्य कर्म, भावकर्म और नोकर्म का अभाव होने से समस्त आत्मिक गुण प्रकट हो गये हैं वे वस्तुतः सिद्ध कहलाते हैं ।
आचार्य - 'अड़' उपसर्ग 'चार' धातु 'जयत' प्रत्यय् होने पर आचार्य na की निष्पत्ति हुई है। इसका प्रयोग अधिकतर रहस्य के साथ ज्ञानोपदेश देने वाले विद्वानों के लिए किया जाता है। आचार्य में छतीस गुण विद्यमान होते हैं। वह बारह प्रकार का अन्तरंग तथा बहिरंग लप, वशधर्म, पंचाचार, पट्कर्म तथा तीन गुप्तियों का आचरण करने वाले होते हैं।" माचार्य पर मुनि संघ की व्यवस्था तथा नए मुनियों को दीक्षा दिलाने का दायित्व भी विद्यमान रहता है ।"
वस्तुतः जो सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र को अधिकता से प्रधान पद प्राप्त करके मुनि संघ के नायक हुए हैं तथा जो मुख्यत: निविकल्प स्वरूपाचरण में ही मग्न रहते हैं, पर कभी-कभी रागांश के उदय से करुणा बुद्धि हो तो धर्म के लोभी अन्य जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, दीक्षा लेने वाले को योग्य जानकर
१. अण्णुविवधुवि तिहुयणहं सासय सुक्खसहाउ ।
तित्यु जिसबलु विकाल जिय विवसई लब्ध सहाउ ।
-- परमात्म प्रकाश, योगींदुदेव, राजचन्द्र जैन शास्त्र माला, अगास स० २०२९, दोहा छंदांक २०२, पृष्ठांक ३०५ ।
२. 'ज्ञान दर्शन चारित्र तपो वीर्याचार युक्तत्वात्संभावित परम शुद्धोपयोगभूमिकाना चार्योपाध्यायसाधुत्व विशिष्टान श्रमणांश्च प्रणमामि ।'
- प्रवचनसार, तात्पर्य वृत्ति । २, जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, सं० २०३०, पृष्ठांक ४११
३. सदाचार विहहू सदा आायरियं चरं ।
बायार मायारवतो नारियोतेज उम्मदे ||
- मूलाचार, गाया संख्या ५०६, जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, भाग १, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०२७, पृष्ठांक २५२ ।