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से पूजा करने वाला कामदेव सदृश देहवाला होता है तथा इसके क्षेपण में सुन्दर देह तथा पुष्पमाला की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है ।"
संस्कृत, प्राकृत वाङमय में पुष्प शब्द के प्रतीकार्य की परम्परा हिन् जैन काव्य में भी सुरक्षित है। यहां पुष्प कामनाओं के विसर्जन के लिए पूजाकाव्य में गृहीत है।
जैन - हिन्दी-पूजा में निरुपित है कि खिले हुए सुन्दर सुगन्ध युक्त पुष्पों से केवल ज्ञानी जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर मन मन्दिर को प्रसन्नता से खिला दो । मत पवित्र-निर्मल बन जाने से ज्ञान चक्षु खुल जायेंगे व विशुद्ध चेतन स्वभाव प्रकट होगा जिससे अनुभव रूपी पुष्पों से आत्मा सुबासित हो जायेगा ।",
जैन - हिन्दी-पूजा-काव्य में १८वीं शती के पूजाकवि द्यानतराय प्रणीत 'श्री चारित्रपूजा' नामक रचना में पुष्प शब्द इसी अयंध्यंजना में व्यवहृत है।' उन्नीसवी शतों के पूजा- कवि बख्तावररत्न प्रणीत 'श्री पार्श्वनाथ
४. वसुनंदि श्रावकाचार, ४६५, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृष्ठ ७८ ।
२. विकच विर्मल शुद्ध मनोरमः
विशद चेतन भाव समुद्भवैः । सुपरिणाम प्रसून धनैर्नवः परम तत्वमयं हियजाम्यहं ॥
- जिनपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्द्धं शताब्दी स्मृति ग्रंथ, प्रकाशक -- सार्द्धं शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, सन् १९६५, पृष्ठ ५५ ।
३ पुहुप सुवास उदार, खेद हरं मन सुचि करें । सम्यक चारितसार, तेरहविध पूजों सदा ।
ॐ ही त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय काम बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री रत्नत्रयपूजा द्यानतराय, संगृहीत ग्रंथ - जैनपूजापाठ संग्रह, भाग चन्द पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ ७४ 1