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अपराजितमन्त्रोऽयं सर्व-विघ्न विनाशनः । ed प्रथमं मंगलं मतः ॥ देवो पंच-मोयारो सब्द-पाव-व्यवासको मंगला च सन्देस पडलं हवाइ मंगल |" अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचर्क परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ कर्माष्टक - विनिसुपतं मोक्ष-लक्ष्मी-निकेतनम् । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् || विनोषाः प्रलयं यान्ति शाकिनी - भूत- पन्नगाः ।
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥'
इसके पश्चात् चन्द्राकार बने स्थापना पर क्रमशः पहले केन्द्र पर निम्न अर्ध चढ़ाना चाहिये, यथा
पंचकल्याणक का अर्थ
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उवक म्हनतेबुल पुष्पकेश् वरसुदीपसुधूपफलार्थकं
।
धवलमंगलशांनरवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
ॐ ह्रीं भगवान के गर्भ जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाणपंचकल्याण केम्यो अर्ध्य :
निर्वपामीति स्वाहा । "
पंचपरमेष्ठि का अर्थ
उवकन्धम्बन संदलपुष्यर्कश्च सुदीप धूपपालार्धकैः
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धवल मंगलगान रवाकुले जिनगृहे जिन मिष्टमहं यजे ||
ॐ ह्रीं भी अरहन्त सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुस्यो अर्ध्य निर्वपामीति
स्वाहा।"
२. शॉनपीठ पूर्णाजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ. दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-५, १६५७ ई०, पृष्ठ २७-२६ ।
जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, मं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलको
१२ ॥
जापाठ संग्रह, 'मावन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२ ।