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विधि-विधान
बेवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान मे षट् कर्म air are a free aर्या के आवश्यक अंग माने गए हैं ।" यहाँ पूजा तज्जन्य सुफल free संक्षेप में चर्चा कर पूजा-विधि-विधान का विवेचन करना हमें अभिप्रेत है ।
पूज्य का आदर करना बस्तुतः पूजा है। रागद्वेष विहीन वीतराम बस्तुतः आप्त पुरुष तथा पूज्य है। इस भौतिकवादी युग में व्यक्ति लोकरंजना के कार्यों में इतने अधिक प्रसित रहते हैं कि वे जिन पूजन के मंगल कार्य के लिए समय ही नहीं निकाल पाते। मोहनीय कर्मोदय' से जीवन में इतनी कुष्ठा व्याप्त रहती है कि कल्याणमार्ग में प्रवृत ही नहीं हो पाते। जिनेन्द्र पूजा यह संजीवनी रसायन है जो अमंगल में भी मंगल का सूत्रपात कर देती है । जीवन में जागरूकता ला देती है। वीतराग भगवान जिनेन्द्र की जब पूजक पूजा करता है तब वह भगवान जिनदेव के गुगों का चितवन करता हुआ उनका वाचन-कीर्तन करता है। वह जितनी देर पूजा करता है उतनी ही देर बोतराग भगवान् के संसर्ग अथवा प्रसंग से अशुभ गतिविधि को शुभ किंवा प्रशस्त मार्ग में परिणत कर देता है। यह है भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा का
सफल ।
पूजा करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है। इसलिए यह विधि सम्पन्न करते समय उन्हीं का आलम्बन लिया जाता है, जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या तो
१. देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः सयमस्तपः ।
दानचेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ||
- पंचविशतका, आचार्य पद्मनदि, अधिकार संख्या ६, श्लोक ७, जीवराज प्रथमाला शोलापुर, प्रथम संस्करण १६३२ ।
२. वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शान्त आनद स्वरूप को विकृत करके, उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा राग द्वेष रूप परिणति उत्पन्न कर देते हैं। मोहनीय कर्म कहलाते हैं ।
अपभ्रंश वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा), उ० प्र०, १९७७, पृष्ठ ३ ।