________________
मोक्ष प्राप्त कर लिया है या जो अरहन्त अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। भाचार्ष, उपाध्याय और साधु तथा जिन-प्रतिमा और जिन गाणी ये भी माम
धि में प्रयोजक होने से उसके आलम्बन माने गए हैं। यहां यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना राग के नहीं होते और राग संसार का कारण है, इसलिए पूजाकर्म को आत्मशुद्धि में प्रयोजक कैसे माना जा सकता है। समाधान यह है कि जब तर सराग अवस्था है तब तक जीव के राग की उत्पत्ति होती ही है । यदि वह लौकिक प्रयोजन को सिद्धि के लिए होता है तो उससे संसार की वृद्धि होती है किन्तु मरहन्त आदि स्वयं राग और द्वेष से रहित होते हैं। लौकिक प्रयोजन से उनकी पूजा की भी नहीं जाती है, इस लिए उनमें पूजा आदि के निमित्त से होने वाला राग मोक्ष मार्ग का प्रयोगक होने से प्रशस्त माना गया है।
भगवान जिनेन्द्र देव की भक्ति करने से पूर्व संचित सभी कमों का क्षय होता है। आचार्य के प्रसाद से विद्या और मंत्र सिख होते हैं। ये संसार से तारने के लिए नौका के समान है । अरहन्त, वीतराग-धर्म, द्वादशांग वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साध इनमें जो अनुराग करते हैं उनका वह अनुराग प्रशस्त होता है । इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करने से सब अर्थों की सिद्धि होती है । इसलिए भक्ति राग पूर्वक मानी गई है, किन्तु यह निदान नहीं है क्योंकि निवान सकाम होता है और भक्ति निष्काम यही वस्तुतः दोनों में अन्तर है।
इस प्रकार पूजा-कर्म की उपयोगिता असंदिग्ध है। प्रश्न है पूजा करने की विधि क्या है ? अब यहां इतने उपयोगी नैत्यिक कर्म के विधि-तंत्र तथा विधान-विज्ञान सम्बन्धी संक्षेप में विवेचन करेंगे।
किसी भी अनुष्ठान का अपना विशेष विधान होता है। जन पूजा-विधान की भी अपनी विधान पति है। यह पूजा-प्रकृति के अनुसार ही अनुप्राणित हमा करती है।
बनदर्शन भाव प्रधान है। किसी भी कार्य सम्पादन के मूल में भाव और उसकी प्रक्रिया विषयक भूमिका वस्तुतः महत्वपूर्ण होती है। वास्तविकता यह है कि बिना भावना के किसी कार्य सम्पावन की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसी बाधार पर पूजा करने से पूर्व पूजा करने का भाव-संकल्प स्थिर करना परमावश्यक है। इसीलिए शौचादि से निवृत्त होकर भक्त अपवा