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सम्पज्ञान और सम्यक् चारित्र वस्तुतः रत्नत्रय कहलाते हैं। जैनधर्म के मनुसार यह मोठा का मार्ग है।' इसमें दर्शन, ' शान' और चारित्र चितवन कर पूजा-पाठ किया गया है। इस भक्ति से मोक्षमार्ग प्रशस्त होतो है। श्री पंचमेरूपूजा का आधार विदेह क्षेत्र के मध्यभाग में स्थित सुमेरूपर्वत है। यह पर्वत तीर्थंकरों के अभिषेक का आसन रूप माना जाता है ।" कविवर द्यानतराय ने श्री पंचमेह पूजा में तीर्थङ्करों के अभिषेक अनुष्ठान का स्मरण कर भक्ति की है फलस्वरूप दुखों का मोचन और सुख-सम्पति का विमोचन होता है ।"
१. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः ।
- तत्त्वार्थ सूत्र, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक सूत्र, आचार्य उमास्वामी, सम्पादक पं० सुखलाल संघवी, भारत जैन महामंडल, वर्धा, प्रथम संस्करण १६५२, पृष्ठ ६७ ।
२. दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्म परिज्ञानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चरित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥
-- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्री अमृत चन्द्रसूरि दी सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, अजिताश्रम, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६३३, पृष्ठ ८१ ।
३. सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थ व्यवसायतमकं विदुः ।
मतिबुतावधिज्ञानं मनः पर्यय केवलम् ॥
- तत्वार्थसार, श्री अमृत चन्द्रसूरि, संपादक पंडित पन्नालाल साहित्या -चार्य, श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रंथमाला, डुमराव बाग, अस्सो, वाराणसी५, प्रथम संस्करण सन् १९७०, पृष्ठांक ६-७ ।
४. असुहादो विणि वित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारितं ।
वद समिदि गुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियम् ॥
- बृहद् द्रव्य संग्रह, श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, श्रीपरमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमदरायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास, बोरीआ, गुजरात, प्रथम संस्करण श्रीवीर निर्वाण संवत् २४६२, पृष्ठ १७५ ।
५ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १९७२, पृष्ठ ४६४ । ६- तीर्थंकरों के न्हवन जलतें भये तीरथ शर्मदा,
सातै प्रवन्छन देत सुर-मन पंचमेरून की सदा । वो जलधि ढाई द्वीप में सब गनत मूल बिराजहीं, पूज असी जिनधाम- प्रतिमा होहि सुख दुख भाजहीं ॥
- श्री पंचमेरुपूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण, १६५७, पृष्ठ ३०२ ।
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