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(EL ) श्राश्विन शुक्ला २ के दिन हिसारमें (पेरोजापतन) में कुतुबखानके राज्यकाल में सुवाच्य अक्षरों में लिखी गई है, जो सुनामपुरके वासी खडेलवाल वशी संधाधिपति श्रावक 'कल्हू' के चार पुत्रोंमेंसे प्रथम पुत्र धीराकी पत्नो धनश्री के द्वारा जो श्रावकधर्मका अनुष्ठान करती थी, अपने ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयार्थ लिखाकर तात्कालिक भट्टारक जिनचंद्रके शिष्य पंडित मेधावीको प्रदान की गई है । इससे यह प्रति १०० वर्षके लगभग पुरानी है।
टीकाकार मुनि गणधरकीर्ति गुजरात दशके रहने वाले थे । गणधरकोर्निने अपनी यह टीका किसी सोमदेव नामके सज्जनके अनुरोधसे बनाई है, टीका संक्षिप्त और ग्रन्थार्थकी अवबोधक है । टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिमें टीकाकारने अपनी गुरुपरम्पराके साथ टीकाका रचनाकाल भी दिया है। गुरु परम्परा निम्न प्रकार है:सागरनंदी,स्वर्णनंदी,पद्मनंदी,पुष्पदंत कुवलयचंद्र और गणधरकीति ।
गणधरकीर्तिने अपनी यह टीका विक्रम संवत् ११८६ में चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारके दिन गुजरातके चालुक्यवंशीय राजा जयसिह या सिद्धराज जयसिंहके राज्यकालमें बनाकर समाप्त की है-जैसाकि उम्पके निम्न पद्योंसे प्रकट है :
एकादशशताकीर्णे नवाशीत्युत्तरे परे । संवत्सरे शुभे योगे पुष्पनक्षत्रसंज्ञके ॥१७॥ चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवौ दिने । सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभृत्कीर्तिविपश्चितः ।।१८।। निस्त्रिंशतजिताराति विजयश्रीविराजनि । जयसिंहदेवसौराज्ये सज्जनानन्ददायनि ॥१६॥
8 सम्बत् १५३३ वर्षे श्रासोज सुदि २ दिने हिसार पेरोजापत्तने लिखितमिति । ग्रन्थवृद्धिके भयसे प्रशस्ति पद्य नहीं दिये हैं।