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और पंचास्तिकायसार - निपुण थे । श्रुतमुनिने चारुकीर्ति नामके मुनिका भी जयघोष किया है जो श्रवणबेलगोलकी भट्टारकीय गडीके पट्टधर थे और चारुकीर्ति नाम उनका रूढ हुआ जान पड़ता है; क्योंकि उस गद्दी पर बैठनेवाले सभी भट्टारक 'चारुकीर्ति' नामले सम्बोधित होते हैं। भावसंग्रहको प्रशस्तिमें उसका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, किन्तु परमागमसारकी प्रशस्ति में उसका रचनाकाल शक सम्वत् १२६३ ( वि० सम्वत् १३३८ ) वृषसम्वत्सर मगसिर सुदी सप्तमी गुरुवार के दिन बतलाया गया है । जिससे श्रुतमुनि विक्रमकी १४वीं शताब्दी के उत्तराद के विद्वान जान पड़ते हैं । १३०वीं प्रशस्ति 'आयज्ञानतिलक' सटीक की है, जिसके कर्ता भट्टवोसरि हैं जो दिगम्बराचार्य श्रीदामनन्दीके शिष्य थे । यह प्रश्न शास्त्रका एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें २५ प्रकरणों में ४१५ गाथाएँ दी हुई है । ग्रन्थकर्ताकी स्वोपज्ञ वृत्ति भी साथमें लगी हुई है, जिससे विषयको सम
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नेमें बहुत कुछ सहायता मिल जाती है । यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ अभी तक प्रकाशित ही हैं । ग्रन्थकी रचना कब हुई और यह टीका कब बनी इनके जानने का भी कोई स्पष्ट आधार प्राप्त नहीं है ।
हाँ, यह बतलाया गया है कि भट्टवोसरिके गुरु दामनन्दी थे । यह दामनन्दी वे ही प्रतीत होते हैं जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ५५ में पाया जाता है। जिसमें लिखा है कि दामनन्दीने महावादी 'विष्णुभट्ट' को वाद में पराजित किया था । इसी कारण लेखमें उन्हें विष्णुभट्ट घरट्ट' जैसे विशेषणसे उल्लेखित किया है । उक्त लेखके अनुसार दामनन्दी उन प्रभाचन्द्राचार्यके सधर्मा अथवा गुरुभाई थे जिनके चरण धाराधोश्वर जयसिंह द्वारा पूजित थे और जिन्हें उन गोपनन्दी श्राचार्यका धर्मा भी बतलाया गया है जिन्होंने कुत्रादि दैत्य 'धूर्जटि' को वादमें
१ सगगाले हु सहस्से विसय-तिसट्ठी १२६३ गदे दु विसवरसे । मगसिर सुद्ध सत्तमि गुरवारे गंध संपुरणो ॥
-- परमागमसार प्रशस्ति ।