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(६४) ५२६ वीं और १२७ वीं प्रशस्तियों क्रमशः 'रिष्ट समुच्चय-शास्त्र' और 'अर्धकाण्ड' की हैं, जिनके रचयिता दुर्गदेव हैं जो संयमसेन मुनीन्द्रके शिष्य थे। संयमसेनकी बुद्धि षदर्शनोंके अभ्याससे तर्कमय हो गई थी, वे पंचांग शब्द-शास्त्रमें कुशल तथा समस्त राजनीतिमें निपुण थे और वादिरूपी गजोंके लिये सिंह थे, तथा सिद्धांत समुद्रक रहस्यको पहुँचे हुए थे। उन्होंकी प्राज्ञामे 'मरणकरण्डिका' अादि अनेक प्राचीन ग्रंथोंका उपयोगकर 'रिष्ट समुच्चय' नामक इस ग्रन्थकी रचना की गई है। यह ग्रंथ वि० संवत् १०८ की श्रावण शुक्ला एकादशीको मूलनक्षत्रके समय लचमी निवास श्रीनिवास राजाके राज्यकालमें कुम्भनगरके शांतिनाथ मंदिरमें बनकर समाप्त हुआ है । प्रशस्तिमें दुर्गदेवने अपनेको 'देशयती' बतलाया है, जिससे वे श्रावकके व्रतोंके अनुष्ठाता क्षुल्लक साधु जान पड़ते हैं। इस ग्रंथकी कुल गाथा संख्या २६१ है और यह ग्रंथ बादको 'सिघी जैन सीरीज' में प्रकाशित भी हो चुका है।
इनकी दूसरी कृति 'अर्घकांड' है जिसकी गाथा संख्या १४६ है, जो वस्तुओंकी मन्दी-तेजोके विज्ञानको लिए हुए है । यह इस विषयका महस्वपूर्ण ग्रन्थ जान पड़ता है। ग्रन्थमें रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है और प्रकाशनके योग्य है।
मीसरा ग्रन्थ मत्रमहोदधि' है जिसका उल्लेख 'वृहटिप्पणिका' १ में 'मंत्रमहोदधि प्रा. दिगंबर श्री दुर्गदेवकृत-मू० गा. ३६' इस रूपमें किया गया है। यह अभीतक अप्राप्य है। इसके अन्वेषणकी आवश्यकता है।
१२८वीं और १२वीं प्रशस्तियां क्रमशः 'परमागमसार' और 'भावसंग्रह' ग्रंथों की हैं, जिनके कर्ता श्रुतमुनि हैं । श्रुतमुनि मूलसंघ. देशीयगण और पुस्तकगच्छुकी इंग्लेश्वर शाखामें हुए हैं। उनके अणुव्रत गुरु बालेदु या बालचंद्र थे, महावतगुरु अभयचद् सद्धांतिक थे और शास्त्रगुरु अभयसूरि तथा प्रभाचंद्र नामक मुनि थे, जो सारत्रयमें-समयसार प्रवचनसार
१ देखो, जैन साहित्य संशोधक प्रथमखण्ड, अंक ४ पृ० १५७