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शरीर से दुबले-पतले थे परंतु तप गुणमें दुर्बल नहीं थे I बड़े साहसी. गुरु और विनयी थे और बाल्यावस्था मे जीवनपर्यंत अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के धारक थे | स्वाभाविक मृदुता और सिद्धांतमर्मज्ञता गुण उनके जोवनसहचर थे । इनकी गम्भीर और भावपूर्ण सूत्रियां बड़ी हो सुन्दर और रसीली हैं, कवितारस और अलंकारोंके विचित्र श्राभूषणों श्रलंकृत हैं । बाल्यावस्था से ही उन्होंने ज्ञानकी सतत श्राराधनामें जीवन विताया था, सैद्धांतिक रहस्योंके मर्मज्ञ तो थे हो और उनका निर्मल यश लोकमें सर्वत्र विश्रुत था । इन्होंने अपने गुरु वीरसेनाचार्थकी मृत्यु के बाद जयधबलाकी अधूरी टीकाको शक सम्बत् ७५६ [वि० सम्बत ८६४ ] में समाप्त किया था । इसके अतिरिक्र इनकी दो कृतियाँ और हैं, आदिपुराण और पाश्वभ्युदय काव्या इनमें आदिपुराण पौराणिक ग्रंथ होते हुए भी उच्चकोटिका एक महाकाव्य है जो भव्य, मधुर, सुभाषित और रस- अलंकारादि काव्योचित गुणोंसे अलंकृत है । रचना सौष्ठव देखते ही बनता है रचना सूक्ष्म अर्थ और गृढ़ पदवाली है । यह ग्रंथ अधूरा रह गया था जिसे उनके शिष्य गुणभद्रने १६२० श्लोक बनाकर पूरा किया है और फिर उत्तरपुराण की रचना स्वयं की है पार्श्वाभ्युदय काव्य तो अपनी कोटिका एक ही है, उसमें मेघदूतके विरही यक्षकी कथा और पथोंको कितने अच्छे are समाविष्ट किया गया है यह देखते ही बनता है ।
जयधबलाकी इस प्रशस्ति में पद्मसेन, देवसेन और श्रीपाल नामके तीन विद्वानोंका उल्लेख किया गया है। जिससे वे जिनसेनके सधर्मा अथवा गुरुभाई जान पडते हैं और जयधवलाको तो उन्होंने श्रीपालके द्वारा सम्पादित भी बतलाया है । इससे श्रीपाल श्राचार्य उस समयके सिद्धांतज्ञ सुयोग्य विद्वान् जान पड़ते हैं ।
१२५ वीं प्रशस्ति 'आराधना पताका' की है, जिसके कर्ता वीरभद्राचार्य हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में ६६० गाथाएँ पाई जाती हैं और ग्रन्थका रचनाकाल वि० सं० २००८ दिया है। वीरभद्राचार्यको गुरुपरम्परा क्या है और वे कहाँ के निवासी थे, यह उक्त प्रशस्ति परसे कुछ ज्ञात नहीं होता ।