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________________ जैन वन पदार्थों के सीधे अन्तान में बाधक नहीं होती। जिनभद्र का मत है कि मन के पर्यायों का सीधे अन्तनि होता है, किन्तु मन के पदार्थों का ज्ञान अप्रत्यक्ष रूप से होता है। इसका कारण वे यह बताते हैं कि, मन की 'अन्तर्वस्तुओं में भौतिक तथा अभौतिक दोनों ही प्रकार की वस्तुओं का समावेश होता है। चूंकि, मन के बदलते पर्यायों के माध्यम के विना दूसरे के विचारों का अन्तर्मान होता है, यह मानना एक अयुक्त बात है, इसलिए यह मानना अधिक न्यायसंगत होगा कि भौतिक तथा अभौतिक वस्तुओं का अन्तान केवल अप्रत्यक्ष रूप से होता है। प्राचीन जैन परम्परा संभवत: यही थी कि मन के पर्यायों का बोध सीधे होता है। संभवतः मनःपर्यय को शाब्दिक अर्थ में ही ग्रहण किया जाता था। __ मनःपर्यय के दो भेद माने गये हैं : अनुमति और विपुलमति । ऋजुमति मनुष्य के आध्यात्मिक विकास के आरंभिक स्तर की द्योतक है और इसलिए यह कम शुद्ध होती है । विपुलमति केवलज्ञान के उदय होने तक टिकी रहती है। ऋजुमति के बारे में कहा जाता है कि इससे ऐसे व्यक्तियों के विचार जाने जा सकते हैं जिनकी दूरी होती है : चार से आठ क्रोश से लेकर चार से आठ योजन तक । इसी प्रकार विपुलमति की सीमा है : चार से आठ योजन से लेकर दो अर्थद्वीपों तक । ऋजुमति का काल-विस्तार एक जीवनकाल से लेकर अतीत के आठ जन्मों तथा अनागत के आठ जन्मों तक होता है। विपुलमति का कालविस्तार आठ जन्मों से लेकर अनन्त जन्मान्तरों तक होता है। अवधिज्ञान तथा मनःपर्यय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि दोनों का सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं से है। फिर भी दोनों में कुछ फरक हैं। इन्हें नीचे की तालिका में दिया जा रहा है : अवधिज्ञान मनःपर्षय शुद्धता : भौतिक वस्तु तथा मन का भी अवधि की अपेक्षा यह शान जान संभव है, परन्तु यह उतना अधिक सुस्पष्ट होता है । दूसरे स्पष्ट नहीं होता जितना कि मन भी अधिक स्पष्टता से जाने मनःपर्यय में होता है। जाते हैं। विस्तार : अनन्त विस्तार संभव है-- इसका विस्तार मानव-जीवन दिक् के सूक्ष्मतम अंश से लेकर के व्यापारों की सीमा तक ही इसकी चरम सीमा तक। 10. पहले की अपेक्षा पूसरे को अधिक पिट (विमुडतर) माना जाता है। ऋजुमति एक बार होकर छूट भी सकता है (प्रतिपतति), परन्तु विपुलमति एक बार होकर फिर कभी छूटता नहीं (न प्रतिपतति) । 'तत्वासूख', 1.24 125,देखिये, 'स्थानांवसूत्र' भी, 721
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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