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________________ इन्द्रियातीत शाम यानी जन्मजात मान देवों सबा नारकीय जीवों में होता है । गुणप्रत्यय यानी अजित ज्ञान उन बाधाओं को दूर करने से या नष्ट करने से प्राप्त होता है वो अवधिज्ञान के मार्ग में उपस्थित होती हैं। गुणप्रत्यय अवधि वे सभी मनुष्य प्राप्त कर सकते हैं जिनको बुद्धि है। इसके छह भेद बताये गये हैं : (1) अनुनानी अवधिज्ञान जहां जाता जाता है, वहीं उसके साथ जाता है; (2) अननुगामी अवधिज्ञान शाला के स्थान विशेष से पृषक होने पर छूट जाता है, (3) वर्षमान अवधिज्ञान एक बार उत्पन्न होने पर समय के साथ बढ़ता जाता है, (4) हायमान अवधिशान समय के साथ घटता जाता है, (5) अवस्थित ज्ञान न बढ़ता है, न घटता है; और (6) अनवस्थित अबधिज्ञान कभी बढ़ता है तो कभी घटता है।' मनःपर्यय ज्ञान से दूसरों के मन में चिन्तित पदार्थों का बोध होता है।' जैनों की इस धारणा से कि मन सूक्ष्म द्रव्य से बना है,हमें मनःपर्यय के सिद्धान्त के बारे में जानकारी मिलती है । मनद्रव्य मन के विभिन्न व्यापारों में प्रकट होता है। ये व्यापार मन में अनुभव किये गये विचार के विभिन्न स्तरों के परावर्तनों के अलावा और कुछ नहीं हैं । अतः जिस व्यक्ति को मनःपर्यय ज्ञान होता है वह, इन्द्रिय तथा मन की सहायता के विना, दूसरों के मानसिक व्यापारों को सीधे ग्रहण करने में समर्थ होता है। जबकि अवधिज्ञान सभी जीवों को हो सकता है, मन:पर्यय ज्ञान केवल मनुष्यों तक सीमित रहता है। कठोर आचरण तथा चारित्र्य-निर्माण की दुष्कर प्रक्रिया की निर्धारित प्रणाली से गुजरने के बाद ही मन:पर्यय ज्ञान की उपलब्धि होती है। मन्दीसूत्र में बे प्रतिबन्ध गिनाये गये हैं जो मनुष्य में मनःपर्यय ज्ञान के उदय के लिए आवश्यक हैं : ____1. कर्मभूमि में मनुष्यों के ज्ञानेन्द्रियों का पूर्ण विकास हुमा होना चाहिए और उनका व्यक्तित्व भी पूर्ण विकसित होना चाहिए, यानी वे पर्याप्त होने चाहिए; 2. मनुष्यो में सम्यक दृष्टि होनी चाहिए और वे सभी विषयभोगों से मुक्त होने चाहिए, 3. वे संयमी होने चाहिए और उनमें असाधारण सामर्थ्य होना चाहिए। मनःपर्यय से सम्बन्धित एक बात को छोड़कर सभी मूल सिद्धान्तों के बारे में जैन दार्शनिक एकमत हैं । उमास्वामि का मत है कि मनःपर्यय में दूसरों के मन में स्थित पदार्थों का सीधे बोध होता है । मन में घटित परिवर्तन की प्रक्रिया 5. देखिये, एच. एस. भट्टाचार्य, पूर्वो० पु. 307-08 6. 'नन्दीसूत्र', 9-15; 'तत्वार्षसूत्र', 1.23 पर भाष्य 7. 'आवश्यकनियुक्ति, 76 8. 'विशेषावश्यक-भाष्य',669,814 9. 'मन्दीसूत',39440
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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