________________
जैन दर्शन
बन्धन को सभी व्यक्तियों ने एकसाथ नहीं तोड़ा है। अतः कर्मों द्वारा व्याप्त सीमाओं को हटाने के प्रयत्न में विभिन्न व्यक्ति विभिन्न स्तरों तक पहुंचे होते हैं; इसलिए उनकी अवधिज्ञान की सीमाएं भी विभिन्न स्वरों की होती हैं । मनुष्य की अवधिज्ञान की न्यूनतम क्षमता में वह ऐसी वस्तुओं को ग्रहण कर सकता है जो लघुतम स्थान तथा सूक्ष्मतम काल बिन्दु में व्याप्त होती हैं । गुणात्मक दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ अवधिज्ञान वह है जिसमें अनन्त दिक्-बिन्दुओं में तथा अतीत एवं अनागत के अनगिनत कालचक्रों में व्याप्त वस्तुओं का बोध होता है। विशेष बात यह है कि काल-बोध की क्षमता बढ़ने पर दिक्-बोध की ( और इसके साथ अधिक संख्या में द्रव्याणुओं और अधिक संख्या में स्व रूपों को पहचानने की क्षमता भी बढ़ जाती है । परन्तु दिक्-बोध की क्षमता बढ़ने पर काल-बोध की क्षमता नहीं बढ़ती । "
92
तातिया के अनुसार इस विवेचन का निष्कर्ष है : " दिक्-बिन्दु की तुलना में काल-बिन्दु का विस्तार अधिक होता है, इसलिए यह समझा गया कि एक कालबिन्दु की अपेक्षा एक दिक्-बिन्दु तक पहुंचना आसान है । अतः यह माना गया है कि काल-वेधन के साथ-साथ दिक्-व्याप्ति भी होती है । परन्तु दिक्-व्याप्ति के साथ काल- वेधन भी होता है, यह सत्य नहीं है। क्योंकि प्रत्येक दिक्-बिन्दु में अनन्त परमाणु होते हैं और प्रत्येक परमाणु के अनन्त स्वरूप होते हैं, इसलिए यह माना जाता है कि दिक्-भेदन का विस्तार होने से ग्रहण की जानेवाली वस्तुओं तथा उनके स्वरूपों की संख्या भी बढ़ जाती है, परन्तु अधिक संख्या में वस्तुओं का और उनके स्वरूपों का बोध हो तो यह जरूरी नहीं है कि काल-भेदन तथा दिक्-व्याप्ति में भी वृद्धि हो । अधिक वस्तुओं का और स्वरूपों का बोध अन्तर्ज्ञान के कारण भी हो सकता है, और इसलिए भी दिक् अथवा काल का विस्तार आवश्यक नहीं है।""
लेकिन सर्वोत्तम अवधिज्ञान में भी सभी स्वरूप ज्ञात नहीं होते, यद्यपि ज्ञात स्वरूपों की संख्या अनन्त है ।" यह भी मान्यता है कि, न केवल मनुष्य, बल्कि सभी जीवित वस्तुओं में अवधिज्ञान की (न्यूनाधिक ) क्षमता होती है।
अवधिज्ञान के तीन प्रकार बताये गये हैं : देशावधि, परमावधि और सर्वावधि | देशावधि का विस्तार काल तथा दिक् की परिस्थितियों तक सीमित रहता है, और शेष दो का इस प्रकार सीमित नहीं रहता । सर्वावधि ऐसा ज्ञान है जिससे विश्व की सभी भौतिक वस्तुओं के विषय रहित रूपों को ग्रहण किया जा सकता है। देशावधि के दो भेद हैं: भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यथ
2. देखिये, 'आवश्यक नियुक्ति, 36
3. देखिये, 'स्टडीज इन जैनिज्म' पु० 64
4. देखिये, 'दि सेवावश्यक भाष्य', 685, 'नम्वीसूत, 16