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________________ इन्द्रियातीत ज्ञान 16 शानेन्द्रियों अथवा मन की सहायता के विना ज्ञान हो सकता है, इसे आधुनिक मनोवैज्ञानिक एक 'तस्य' के रूप में स्वीकार करते हैं, और इसके बारे में प्राचीन काल के भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने भी विचार किया है। अपवाद थे तो केवल चार्वाक और मीमांसक । चार्वाक ऐसे किसी ज्ञान को स्वीकार नहीं करते थे जो ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त न हुआ हो; इसलिए वे अतीन्द्रिय ज्ञान में आस्था नहीं रखते थे। मीमांसकों की वेदों पर इतनी अधिक आस्था थी कि वे अन्य किसी स्रोत को अतीत, वर्तमान तथा अनागत का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं समझते थे। अतः वे इन्द्रियातीत शान को कोई महत्त्व नहीं देते थे, क्योंकि इसकी निष्पत्ति वेदों से नहीं होती। इन्द्रियातीत ज्ञान सम्बन्धी जैनों के दृष्टिकोण को इस तथ्य के आधार पर समझा जा सकता है कि, जैन दार्शनिकों के मतानुसार इन्द्रिय एवं मन मनुष्य की केवलज्ञान प्राप्त करने की क्षमता में बाधा डालते हैं, और उनके सिद्धान्त के अनुसार आदमी केवलशान के मार्ग की इन बाधाओं को शनैः-शन: दूर करके ही अन्त में परमसुख प्राप्त कर सकता है। मनुष्य द्वारा सीधे ज्ञान प्राप्त करने के रास्ते में दो मंजिलें स्पष्ट दिखाई देती हैं, जो प्रत्यक्ष शान की द्योतक हैं । ये हैं : अवधि यानी अतीन्द्रिय दृष्टि और मनःपर्यय । इनसे हमें मानव-आत्मा की चरम क्षमता के बारे में जानकारी मिलती है। अतः इनके बारे में हम विस्तार से विचार करेंगे। अवधिज्ञान मनुष्य की वह क्षमता है जिसमें वह, इन्द्रिय अथवा मन की सहायता के बिना, आकार तथा स्प वाली वस्तुओं को ग्रहण करता है। निराकार वस्तुएं, जैसे कि आत्माएं, धर्म, अधर्म, दिक् और काल, अवधिज्ञान की क्षमता के परे की होती हैं । अतः अवधिज्ञान में केवल उन्हीं वस्तुगों को ग्रहण किया जा सकता है जिनके आकार, रंग तथा आयाम होते हैं।' विभिन्न व्यक्तियों में अवधिज्ञान की क्षमता न्यूनाधिक होती है। न्यूनाधिक क्षमता का कारण यह है कि मनुष्य की प्रत्यक्ष ज्ञान की क्षमता में बाधक कर्म1. 'तत्वार्य-सूच, 1.28
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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