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जैन दर्शन
लेश्य के विभिन्न भेदों की चर्चा नहीं करनी है; इतना ही जानना पर्याप्त होगा fe कषाय सामान्यतः इन्द्रियों को विषय-भोग की वस्तुओं में लिप्त होने की प्रेरणा देते हैं। इस संदर्भ में एक महत्त्व की बात बताते हुए के० सी० सोगानी लिखते हैं कि इससे उस मत का समर्थन ही होता है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान कषायों द्वारा प्रभावित रहता है। इनका प्रभाव इतना अधिक होता है कि जब सुखदायक वस्तुएं दूर चली जाती हैं और दुःखदायक वस्तुएं समीप आती हैं, तो आदमी विचलित हो जाता है और अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है ।"
सारांश यह कि, मनोविकार ( जिससे मानसिक संतुलन भी चला जाता है) का परिणाम यह होता है कि जीव कर्म के चक्र में अधिकाधिक फंसता जाता है। अत: जैनों का संवेग का सिद्धांत उनके नीति सिद्धांत के इस माने में अनुरूप है कि दूसरे में यह स्पष्ट बताया गया है कि इन्द्रियजन्य तथा मानसिक संवेदन अन्ततोगत्वा मनुष्य द्वारा परमसुख तथा पूर्ण अस्तित्व की प्राप्ति में बाधाएं डालते हैं ।
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12. के० सी० सोगानी, 'एबिकल डॉक्ट्रिन्स इन जैनिज्म' ( सोलापुर जैन संस्कृत संघ, 1967), q. 54