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________________ संवेग तथा अनुभूतियां चरण के सिद्धांत पर आधारित है।" ऊपर जिन दो प्रकार के मोहनीय कर्म का उल्लेख किया गया है, उनसे हमें पता चलता है कि जैन दर्शन में संवेगों के सिद्धांत को दार्शनिक विवेचन में किस प्रकार से उपयोग में लाया गया है। उन दो मोहनीय कर्मों में से पहले का जन्म सम्यक् दृष्टि के अवरोध के कारण होता है। इसका उपसिद्धांत यह है कि, सदाचरण भी असंभव हो जाता है। यह सभी जानते हैं कि, जब तक किसी व्यक्ति में आध्यात्मिक आस्था नहीं होती, तब तक उसके सही रास्ते पर आगे बढ़ने की तनिक भी संभावना नहीं होती । गोम्मटसार में कहा गया है कि "संवेग में यह शक्ति होती है कि वह आत्मा द्वारा आध्यात्मिक वृत्ति, आंशिक आच रण, पूर्ण आचरण तथा सदावरण की प्राप्ति में बाधा पैदा करे | "B जैन ग्रन्थों में चार प्रकार के संवेगों के बारे में जानकारी मिलती है । वे : क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें से प्रत्येक को पुनः चार प्रकारों में बांटा गया है, इसलिए कुल मिलाकर सोलह प्रकार के संवेग हैं। प्रत्येक संवेग के चार भेदये हैं: (1) अनन्तानुबन्धी, जो आध्यात्मिक आस्था को रोकता है; (2) अप्रत्याख्यानावरण, जो आंशिक आचरण के मार्ग में बाधा डालता है; (3) प्रत्याख्यानावरण, जो पूर्ण आचरण की चाह को रोकता है; और (4) संज्वलन, जो परिपूर्ण आचरण को भग्न करता है, और इस प्रकार अर्हत् पद की प्राप्ति में बाधा डालता है ' 89 उपर्युक्त संवेगों के अलावा, नौ नोकवाय यानी अल्प संवेग भी बताये गये हैं। ये हैं : हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेद | 10 मनुष्य के मनोविकार उसके विभिन्न प्रकार के कार्यों में प्रकट होते हैं और ये फिर उसे जीवन के विविध अनुभवों के बंधनों में जकड़ते जाते हैं । भारतीय चितन के अनुसार, मनुष्य यदि मनोविकारों तथा कषायों में फंस जाता है, तो फिर उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिल सकती। चूंकि संवेगों की तीव्रता न्यूनाधिक होती है, इसलिए उनसे फलित कार्यों का प्रत्येक जीव पर प्रभाव भी मिन-भिन्न प्रकार का होता है और यह प्रभाव जीव के 'बन्धन- काल' का निर्धारण करता है । कषायों द्वारा प्रभावित कर्म को लक्ष्य कहा गया है ।" यहां हमें 7. वही, पृ० 122 8. 'गोम्मटसार', 282 9. 'सर्वार्थसिद्धि', VIII. 9 10. वही, VIL. 9 11. गोम्मटसार, 489
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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