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________________ जन पर्शन निष्ठ अनुभव है, तो क्या अनुभूतियों के निर्माण में बाह्य-जगत् कोई भूमिका अदा नहीं करता? यद्यपि जैनों का दृढ़ मत है कि बाह्य-जगत् निमित्त कारण नहीं है, वे यह भी नहीं कहते कि बाह्य-जगत् बिलकुल ही कोई भूमिका अदा नहीं करता। वे इन अनुभूतियों को अवीव की बजाय कर्म के साथ जोड़ते हैं। उनके मतानुसार अनुभूति-जनक कर्म ही सुख तया दुःख की अनुभूतियों के जन्म के लिए जिम्मेवार हैं। सतवेदनीय कर्म सुख का अनुभव कराता है और असतवेदनीय कर्म दुःख का अनुभव कराता है। इस प्रकार, अनुभूति-जनक कर्म की फलनिष्पत्ति के लिए बाह्य-जगत् एक सहायक कारण है । यही एक मात्र माध्यम है जिससे मनुष्य सुख या दुःख का अनुभव करता है । यदि तदनुरूप कर्म का उद्भव नहीं होता, तो सिर्फ बाह्य वस्तु को सुख या दुःख की अनुभूति के उद्भव के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता। ____ अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुभूति की उत्पत्ति में वस्तु-जगत् एक सांकेतिक भूमिका ही अदा करता है । सम्बन्धित वस्तु (चाहे वह निमित्त कारण हो) अत्यावश्यक न होकर केवल एक सहायक कारण है। क्योंकि. जैसा कि मेहता ने कहा है, यदि यह स्वीकार नहीं किया जाता, तो एक के लिए जो वस्तु सुखदायक होगी वह सबके लिए सुखदायक होगी। दुःखदायक वस्तुओं के बारे में भी यही बात कही जा सकती है । इसके अलावा, विभिन्न संवेदनाएं एक ही अनुभूति को जन्म दे सकती हैं और एक ही संवेदन से विभिन्न चित्तवृत्तियों में विभिन्न अनुभूतियां उत्पन्न हो सकती हैं। जैन विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को सुख तथा दुःख की अनुभूति होनी ही चाहिए, यह अनिवार्य नहीं है। वह अपनी इच्छाशक्ति का उपयोग करके एक ऐसे स्तर पर भी पहुंच सकता है जहां सुख-दुःख का उस पर कोई असर नहीं होता। ऐसे स्तर पर पहुंचने पर मनुष्य पूर्णावस्था को प्राप्त करता है। ___संवेग की प्रकृति अधिक जटिल होती है, और इसीलिए हमें विभिन्न प्रकार के संवेगों के बारे में जानकारी मिलती है । इस धारणा का मुख्य विश्लेषण हमें कर्म के सम्बन्ध में देखने को मिलता है। आठ में से एक प्रकार के कर्म-मोहनीय कर्म-को मानवीय संवेगों की उत्पत्ति के लिए जिम्मेवार माना जाता है । मोहनीय कर्म का दर्शनावरण तथा पारिजमोहनीय में विभाजन जैनों के संवेगों के सिद्धांत की मनो-नैतिक विशेषता का द्योतक है। जैसा कि मेहता ने लिखा है : ".."संवेग की जैन धारणा शुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक नहीं है, यह मनो-नैतिक है। हम इन दोनों को अलग नहीं कर सकते, क्योंकि यह धारणा मूलत: सदा5. एम. एल. मेहता, 'बन साइकोलॉजी', पु. 115 6. वही, पृ. 115-116
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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