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________________ सबै तथा अनुभूतियां काय, वाकू तथा मन के परिस्पंदन इन कषायों की मदद करते हैं। तस्वार्थ सूत्र में भी कषाय तथा योग इन दोनों को बन्धन के कारण बताया गया है। अतः यह स्पष्ट है कि मानव अस्तित्व के उद्देश्य का जैन विश्लेषण संवेगों तथा अनुभूतियों के विश्लेषण से विशेष रूप से सम्बन्धित है । संवेग के विश्लेषण से अनुभूति का विश्लेषण सरल है, क्योंकि अनुभूति का विश्लेषण शरीर की संवेदनाओं से सम्बन्धित है, जब कि संवेग का विश्लेषण मन से सम्बन्ध रखता है। जैन शब्दावली के अनुसार वेदनीय कर्म इन्द्रियानुभूति के लिए जिम्मेवार है और मोहनीय कर्म संवेगों के लिए । 87 जैन दार्शनिकों का कहना है कि सभी अनुभूतियों के मूल में कषाय तत्त्व होता है, क्योंकि इससे सुख या दुःख के संवेदन उत्पन्न होते हैं। ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे सभी लोग सुख मानें और ऐसी भी कोई चीज नहीं है जिसे सभी दुःख मानें । उत्तराध्ययन सूत्र का कहना है कि विकारी व्यक्ति ही सुख तथा दुःख की शारीरिक एवं मानसिक वेदनाओं का अनुभव करता है।" विरक्ति या संवेग से सुख की निष्पत्ति नहीं होती । प्रेम या द्वेष के कारण ही आदमी को सुख या दुःख की अनुभूति होती है। दुनिया की कोई भी चीज ऐसे किसी आदमी hot सुख या दुःख का अनुभव कराने की शक्ति नहीं रखती जो इनसे विरक्त रहने के बारे में दृढ़निश्चय हो । सुख तथा दुःख के प्रति विरक्ति की अवस्था, जिसे जैन जीवन की चरमोनति मानते हैं, केवलज्ञानी की धारणा में देखने को मिलती है । पहले हमने मानव जीवन में ज्ञानेन्द्रियों तथा मन की बाधक भूमिका के बारे में जो चर्चा की है (जो ज्ञान-मीमांसा के संदर्भ में थी) उससे स्पष्ट हुआ है कि सर्वज्ञ अथवा केवलज्ञानी की अवस्था में आदमी सुख या दुःख से प्रभावित नहीं होता । तस्वार्थसूत्र में केवलज्ञानी ऐसे व्यक्ति को कहा गया है जो हर प्रकार की इच्छा (रति) तथा अनिच्छा (अरति) से मुक्त होता है ।" अतः जाहिर है कि ऐसे व्यक्ति को सुख या दुःख की कोई अनुभूति नहीं होती । परिकल्पना के अनुसार, चूंकि hamशानी पुरुष सभी सीमाओं से अपने को मुक्त कर चुका होता है: और तब परमसुख का अनुभव करने के रास्ते में कोई बाधा नहीं रह जाती, इसलिए वह ऐसे सुख या दुःख के परे चला जाता है जिनका उद्गम इन्द्रियों तथा मन में होता है । यहां एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है। यदि सुख तथा दुःख शुद्ध विषय 2. 'तत्वार्थसून', VIII. 1 3. 'उत्तराध्ययन सूत्र', XXXII. 100-106 4. 'तत्त्वार्थसून' X 1
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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