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संवदन और प्रत्यक्ष मान हान-मीमांसा में मान के माठ प्रकार माने गये हैं : नामिनियोषिक या मति पत, अवधि, मनःपर्याय, केबल, कुमति, कुभुत और विय। इनमें से अंतिम तीन प्रकार क्रमशः मति, श्रत तथा अवधि की मिथ्यावस्थाएं हैं, इसलिए मान के मनोविज्ञान के विवेचन में वस्तुतः इनका कोई महत्व नहीं है। ... 'शान संवेदना पर आधारित होने पर भी इससे अधिक जटिल है । शान चेतना विकास का एक विशिष्ट स्तर है, यह जैन परम्परा में मान्य तीन प्रकार के तिज्ञान पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है। मविज्ञान के यह तीन प्रकार है: उपलब्धि, भावन और उपयोग कहीं-कहीं पांच प्रकार के मतिज्ञान के री उल्लेख मिलते हैं । यद्यपि 'मतिज्ञान के प्रकार' शब्दों का व्यवहार किया गया है, परन्तु महत्त्व की बात यह है कि उनके उल्लेख के बाद बताया जाता है कि वह तब एक हैं, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि वह मतिज्ञान के विभिन्न रूपों के बोतक । उदाहरणार्थ, तत्वार्यसूत्र में कहा गया है : "मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता या अभिनिबोध मूलतः एक ही हैं।"13 . ___ इन्ही विभिन्न घटकों के कारण प्रत्यक्ष ज्ञान की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया टिल है। जहां तक प्रत्यक्ष ज्ञान के ऊपर उल्लिखित तीन स्वरूपों का प्रश्न है, बिपि उपलब्धि, भावन तथा उपयोग शब्दों के अर्थ निश्चित रूप से भिन्न हैं,
थापि,अंतिम दो के बिना उपलब्धि संभव न होगी, और इस प्रकार यह अधूरी ही रह जायगी । ज्ञान के पांच रूपों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। और फिर, इन दोनों प्रकार के विश्लेषणों से पता चलता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान न केवल ज्ञानेन्द्रियों पर अपितु मन पर भी निर्भर है। तत्पर्य सूत्र में स्पष्ट कहा या है कि ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों या मन पर आश्रित रहता है। प्रथम प्रकार के ज्ञान
हन्द्रिय-निमित मतिमान कहा गया है और दूसरे प्रकार को मनोन्निव-निमित्त तिज्ञान।" ऊपर ज्ञान के विभिन्न स्वरूपों के किये गये विश्लेषण के प्रकाश में हमत कि "जैन मनोवैज्ञानिक यह नहीं कहते कि पूर्ण विकसित शान मात्र नोविक्षिप्ति है""इस रूप में स्वीकार किया जा सकता है कि यह जनों के-शान सिद्धांत का स्पष्ट द्योतक है। ___ अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि संवेदना तथा प्रत्यक्ष ज्ञान से सम्बन्धित जैन नोविज्ञान वर्शन तथा मान की धारणाओं से पूर्णतः स्पष्ट नहीं होता। वर्शन था कान और संवेदना तथा प्रत्यक्ष शान के बीच की समानताओं को दरशाया
जा सकता है, किन्तु इस तुलना की अपनी सीमाएं हैं। D. पंचास्तिकाप, समयलार', 41, 'न्य-बह',5 1. पंचस्विकाय, समयसार: 42 2. सनाखून',.1.10 13. वही, I.14 . 4. एच. एस. भट्टाचार्य, पूॉ., पृ. 299