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जैन दर्शन
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संवेदना अवमान या दर्शन से भिन्न है। अकलंक भी इनमें इसी प्रकार का भेद करते है। वह कहते हैं: "वस्तु तथा ज्ञानेन्द्रियों के सन्निकर्ष के तुरंत बाद जिस शुद्ध अवमान का जन्म होता है, उसके बाद ही विशिष्ट स्वरूपवाली निर्धार्थि संवेदना अस्तित्व में आती है।" इसी प्रकार, विद्यानन्द ने ज्ञान की परिभाषा दी है : "ज्ञानेन्द्रिय तथा वस्तु के सन्निकर्ष से जनित अवमान (दर्शन) के बाद उस वस्तु के विशेष गुणों का होनेवाला बोध ज्ञान है ।"" इस प्रकार, इन दार्शनिकों की मान्यता है कि ज्ञान की जटिल प्रक्रिया में प्रथम स्तर अवमान का है, जिसमें वस्तु तथा ज्ञानेन्द्रिय के सन्निकर्ष के परिणाम स्वरूप मात्र संचेतना का उदय होता है । संवेदना के दूसरे स्तर में वस्तु के कुछ विशिष्ट गुणों का बोध होता
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है । तीसरे स्तर में, प्रत्यक्ष ज्ञान के स्तर में, वस्तु की 'पहचान' भी हो जाती है; जैसे यह पता चलता है कि वस्तु किस वर्ग की है, आदि। इस प्रकार, संवेदना को ज्ञान का ही एक स्वरूप माना जाता है और ये दोनों ही निर्धार्य है ।
अवमान तथा ज्ञान के बीच जो भेद है और ज्ञान के अन्तर्गत संवेदना का जो समावेश किया जाता है, उसके बारे में वादिदेव कहते हैं कि यह सत्ता की प्राथमिक व्यापकता तथा गौण व्यापकता के बीच के भेद की तरह है । केवल अवमान (दर्शन) में ही सत्ता की प्राथमिक व्यापकता की संचेतना होती हैं । संवेदना तथा प्रत्यक्ष ज्ञान में केवल गौण व्यापकता का बोध होता है । संवेदना के साथ जो प्रक्रिया शुरू होती है उसकी परिणति प्रत्यक्ष ज्ञान में होती है । वादिदेव कहते हैं : "वस्तु तथा ज्ञानेन्द्रिय के सन्निकर्ष से जनित अवमान (दर्शन) से पैदा हुए गौण सामान्य गुण से निर्धारित ज्ञान का प्रथम स्तर संवेदना है, और मात्र सत्ता ही इसका उद्देश्य है ।'
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जैन परम्परा के अनुसार संवेदना चार प्रकार की है दृष्टिगत, अदृष्टिगत, अतीन्द्रिय तथा शुद्ध' । दृष्टिगत संवेदना इस बात की द्योतक है कि आंखों की चेतना प्रभावित हुई है । अदृष्टिगत संवेदना अन्य ज्ञानेन्द्रियों-कान, नाक, जीभ तथा त्वचा के 'अहंकार की द्योतक है । अतीन्द्रिय संवेदना, जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है, ज्ञानेन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना ही इन्द्रिय-संचेतना की संभावना की ओर निर्देश करती हैं। चौथे प्रकार की संवेदना आदमी द्वारा विश्व की सभी वस्तुओं को ग्रहण करने की क्षमता की द्योतक है।
ज्ञान चेतना के विकास का उन्नत स्तर होने से अधिक जटिल भी है। जैन
6. देखिये, एम. एल. मेहता, 'जैन साइकोलॉजी', पृ० 75
7. 'तस्वार्थ- श्लोक -वार्तिक', 1.15.2
8. 'प्रमाणनयतत्वालीकालंकार', II. 7
9. पंचास्तिकाय, समयसार', 48, 'द्रव्य-संग्रह', 4