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________________ संवैवन और प्रत्यक्ष मान फिर भी, सिर्फ चेतना और संवेदना की चेतना में जो सुगम अन्तर है यह अत्यंत महत्त्व का है। हम देखते हैं कि जैन परम्परा में भी कुछ ऐसे दार्शनिक है जो संबेदन और अवमान में स्पष्ट भेद नहीं करते। उनके मतों पर विचार करने से हमें उन सीमाओं की जानकारी मिल जाती है जिनके अन्तर्गत एक ओर वन तथा भान में तुलना की जा सकती है और दूसरी ओर संवेदन तथा प्रत्यक्ष ज्ञान में। __उमास्वामि के अनुसार मानेत्रियों द्वारा सम्बन्धित वस्तुबों की निःशंक चेतना ही संवेदन (दर्शन) है। इसी प्रकार, मावश्यक नियुक्ति में संवेदनाओं की चेतना को दर्शन कहा गया है । वहां वस्तुओं के विशिष्ट गुणों की कोई चर्चा नहीं की गयी है। इन मतों के अनुसार वस्तु के अस्तित्व की सामान्य संबेतना ही संवे. दन (दर्शन) है। जब हम अवमान तथा ज्ञान के सम्बन्ध का विश्लेषण करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि इस उपयुक्त मत में संवेदन तथा अवमान के बीच भेद की उपेक्षा की गयी है। यद्यपि यह माना गया है कि अवमान अनिर्षि है और ज्ञान निर्धार्ष है, परन्तु संवेदन को अवमान के साथ मिलाने का अर्थ यह होगा कि अवमान मान का ही एक स्वरूप है । जैसे, सिखसेन का मत है कि आरंभिक दौर के बोध को ही अवमान कहते हैं। यह भारंभिक स्तर ही संवेदन है। इस स्थिति में कठिनाई यह है कि अवमान (दर्शन) अनिर्धार्य है और इसलिए इसे निर्धार्य ज्ञान का एक स्वरूप मानना उचित नहीं है। ___अवमान को संवेदना मानने से जो विरोधाभास पैदा होता है, उससे मुक्ति पाने के लिए ज्ञानप्राप्ति के तीन स्तरों को स्वीकार किया गया है। प्रथम स्तर अवमान का है, दूसरा संवेदना का और तीसरा स्तर प्रत्यक्ष ज्ञान का है। इस मत के अनुसार, संवेदना प्रत्यक्ष ज्ञान के पहले का स्तर तो है, परन्तु यह अवमान के बाद का स्तर है। इस मत के अनुयायी विभिन्न जैन दार्शनिकों ने इस विचार को विभिन्न तरीकों से व्यक्त किया है।। पूज्यपाद कहते हैं : "वस्तु और ज्ञानेन्द्रियों के सन्निकर्ष से अवमान (दर्शन) का जन्म होता है । उस वस्तु के तदनंतर के बोध को संवेदना कहते हैं; जैसे, (दृष्टि द्वारा) यह बोध कि 'यह श्वेत रंग हैं।" यहां स्पष्ट हो जाता है कि 1. 'तरवार्यसूत्र', I.15 2. 'आवश्यक-नियुक्ति', 3 3. देखिये, 'सम्मतितकंप्रकरण', II.21 4. देखिये, एम. एल. मेहता, 'बन साइकोलॉजी, पृ.75 5. 'सर्वार्षसिद्धि', I.15
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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