SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवेदन और प्रत्यक्ष ज्ञान 14 भारतीय दर्शनों के कुछ संस्कृत शब्दों का यूरोप की भाषाओं में अनुवाद करते हुए या उनके लिए यूरोपीय दर्शनों में समकक्ष धारणाओं की खोज करते हुए हम कई बार शब्दों के बीच सूक्ष्म किन्तु महत्त्व के भेदों पर विशेष ख्याल नहीं देते। एक ही दर्शन में मौजूद कुछ मतान्तरों के कारण भी मूल धारणाओं के सम्बन्ध में बड़ी गड़बड़ी पैदा होती है। संवेदन तथा प्रत्यक्ष ज्ञान सम्बन्धी जैन धारणाओं का अपूर्ण विश्लेषण करने से भी ऐसी गड़बड़ी पैदा हो सकती है। भारतीय धारणाओं की पाश्चात्य धारणाओं के साथ यांत्रिक तुलना करने की जल्दबाजी में कई विद्वान गलत रास्ते पर पहुंच गये हैं । जैन ज्ञान-मीमांसा की दो विशिष्ट धारणाएं हैं--दर्शन और ज्ञान । इनका विवेचन हम पहले कर चुके हैं। अकसर हम देखते हैं कि दर्शन को संवेदन माना जाता है और ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान । ज्ञान के विकास के यह स्तर - दर्शन और ज्ञान - दो मनोवैज्ञानिक स्तरों संवेदन और प्रत्यक्ष ज्ञान — के तुल्य माने जाते हैं । ऐसी तुलना में गलत कुछ नहीं है, किन्तु इसकी सीमाओं को ध्यान में रखना जरूरी है। संवेदन और दर्शन को गलती से एक समझने का एक कारण यह है कि दोनों ही आत्म-चेतना के विकास में महज जैविक स्तर से विकसित एक स्तर के द्योतक हैं । जैन चेतना - सिद्धान्त में आत्म चेतना के विकास के महत्व को हमें नहीं भूलना चाहिए । 'चेतना के सातत्य' का यह सिद्धांत यह भी बताता है कि चेतना के सुषुप्त तथा पूर्ण जागृत दोनों स्तर हैं। प्रथम स्तर उस स्थिति का द्योतक होता है जब अभी संवेदना पैदा भी नहीं हुई होती, और दूसरा स्तर चेतना के विकास में आत्मानुभूति के उच्च स्तर का द्योतक होता है। संवेदन के स्तर और दर्शन का अर्थ यह है कि चेतना के निश्चेष्ट स्तर का अंत हो गया है और संवेदना के स्तर की शुरूआत हो चुकी है । इन दोनों में अंतर है, यह स्वयं चेतना के विकास के तर्क से स्पष्ट है। जैन शब्द सत्तामात्र ऐसे स्तर का द्योतक है जो विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की अनुभूति होने के पहले का है। परन्तु यह स्तर भी, पहले के स्तर की तरह, अनिर्धार्य है और बाद के प्रत्यक्ष ज्ञान के निर्धायं स्तर से स्पष्ट रूप से भिन्न है।
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy