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________________ मन 81: है। स्पष्टतः मन के यह दो ऐसे रूप हैं जिनमें स्पष्ट भेद कर पाना संभव नहीं है। यह एक ही कार्य के दो अन्योन्याश्रित रूप हैं-यदि हम मन की जियार्थी को इस प्रकार व्यक्त करें - यह बात भट्टाचार्य ने स्पष्ट रूप से दरशानी है : "जब तक आत्मा में सब्धि का उद्गम नहीं होता, तब तक आंतरिक चेतन क्रियाएं (तुलना, धारणा, इत्यादि) असंभव हैं । और, जब तक इन मानसिक क्रियाओं को चालू रखने का विषयगत प्रयास नहीं होता, यानी जब तक उपयोग नहीं होता, तब तक ये आन्तरिक प्रक्रियाएं असंभव हैं । "25 जैन दार्शनिकों ने मन और आत्मा के बीच यांत्रिक भेद नहीं किया है; वह इस बात से भी स्पष्ट है कि उन्होंने मानसिक कार्यों को उचित रूप से निभाने के लिए आत्मा के रूपान्तर पर जोर दिया है। मन के क्रिया-कलाप भी योग्य तथा अयोग्य के बीच भेद करने में समर्थ हैं। एक जैन ग्रंथ गोम्मटसार में कहा गया है : "मन की मदद से कोई भी सीख सकता है, समझ सकता है, इशारे कर सकता है, आदेश ग्रहण कर सकता है, बातचीत सुन सकता है। मनके द्वारा ही व्यक्ति यह निर्णय लेता है कि कोई काम करना चाहिए या नहीं करना चाहिए। मन से ही यह जाना जाता है कि कोई वस्तु यथार्थ है या अयथार्थ । जब किसी को नाम लेकर बुलाया जाता है तो यह मन ही है जिसके कारण आदमी उत्तर देता हैं : " 61 अन्त में, यह जानना उपयोगी होगा कि मन के भौतिक घटक, जिन्हें पौगालिक कहा गया है और जो विशिष्ट द्रव्याणुओं (मनो-वर्गण) से बने हैं, स्थायी होते हैं, जब कि इसके रूपान्तर, जो कि मानसिक कार्य-कलापों के लिए जिम्मेदार होते हैं, स्थायी नहीं होते । परन्तु परमाणुओं के संयोजन को जो भी महत्व दिया गया हो, यह ध्यान में रखरा जरूरी है कि सर्वज्ञ की स्थिति में मानसिक क्रिया का या इन्द्रियानुभूति का कोई नामो-निशान नहीं रहता। 13. देखिये, एच० एस० मट्टाचार्य पूर्वी ०243-244 14. गोम्मटसार जीवकांड' 662
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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