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________________ 80 जन दर्शन जाती है । जैन दार्शनिक बाह्य अनुभवों को अर्थ सातत्य तथा संगति प्रदान करनेवाले एक अन्तरंग इन्द्रिय, मन, के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तो यह स्वाभाविक है कि वह बौद्धों के उस विज्ञानवाद की आलोचना करें जिनके अनुसार विभिन्न क्षणिक अनुभूतियां अपने में एक शृंखला बनाती हैं । 19 जैसे, जैन व्याख्याता अकलंक कहते हैं कि यदि मन का कार्य पुनर्धारणा में वस्तुओं की तुलनात्मक अच्छाई या बुराई आदि निर्धारित करना है और मन यही करता है, तो फिर क्षणिक विज्ञान के साथ इतका तादात्म्य स्थापित करना असंभव है । क्योंकि तुलनाएं तथा पुनर्धारणाएं तभी संभव हैं जब पहले से ज्ञात वस्तु को पुनः मन के समक्ष लाया जा सके। परन्तु जन्म लेते ही नष्ट हो जानेवाले विज्ञान की स्थिति में ऐसा असंभव है ।" यहां यह बताना अनुपयुक्त न होगा कि जैनों ने मन तथा आत्मा में जिस प्रकार भेद दरशाया है उसे कुछ अन्य भारतीय दार्शनिकों (बौद्धों के अलावा ) ने स्वीकार नहीं किया है। वह इस भेद को इस आधार पर अनावश्यक समझते हैं कि ज्ञानेन्द्रियों के विरोध में (१) मन, और आत्मा भी, बाह्य जगत् की वस्तुओं को असीम रूप से ग्रहण करने में समर्थ हैं, (२) मन, आत्मा की ही तरह, किसी वस्तु-विशेष के सम्पर्क के लिए 'सहयोग की स्थिति' की सीमा से आबद्ध नहीं है, क्योंकि इसके अन्तर्गत सभी चेतन तथा अनुभवजन्य प्रक्रियाओं का समावेश होता है । इस भेद को बनाये रखने के लिए जैनों ने दो प्रकार के मन की कल्पना की - द्रव्यमन और भावमन । प्रथम प्रकार का मन सूक्ष्म द्रव्य मे बना होने से द्रव्यमन कहलाया । विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार, मन के कार्य-कलाप इसके अनगिनत सूक्ष्म एवं संलग्न परमाणुओ के संयोजन से सम्पन्न होते है । यह भी जानकारी मिलती है कि द्रव्यमन सुक्ष्म क्षणों का समूह है और ये कण जीव तथा शरीर के योग से उत्पन्न विचार प्रक्रियाओं को उत्तेजित करते हैं 112 भावमन में मानसिक क्रियाएं घटित होती है। जैनों का दृढ़ विश्वास है कि आत्मा के ज्ञानप्राप्ति के मार्ग में बाधक होनेवाले कर्मों का जब तक विनाश नहीं होता तब तक ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं हैं । ज्ञानावरोधक कर्मों का विनाश तथा बाद में मन की ग्रहणशक्ति की तैयारी को लब्धि कहा गया । इसके अलावा, आत्मा का चेतन मानसिक क्रिया स्पष्ट रूपान्तर होना भी जरूरी 10. बौद्धों ने इस श्रृंखला को विज्ञान या चित्त कहा है। 11. एम० एस० भट्टाचार्य द्वारा उद्धत पूर्वो० पू० 241-242 12. 'विशेषावश्यक भाप्य 3525
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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