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जैन दर्शन
प्रत्यक्ष ज्ञान के मार्ग की स्पष्ट बाधाएं माना है। परन्तु जैन ज्ञान-मीमांसा में इन्द्रिय तथा मन द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की विभिन्न विधाओं को स्वीकार किया गया है, और इसलिए उन्होंने मन को अनीन्द्रिय तथा नो-इन्द्रिय की कोटि का माना है । सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है : "किसी लड़की को अनुवर इसलिए नहीं कहा जाता कि उसकी योनि ही नहीं है, बल्कि इसलिए कि उसकी योनि छोटी होने से गर्भाधान के उपयुक्त नहीं होती। उसी प्रकार, मन सामान्य इन्द्रियों की कोटि का नहीं होता, इसलिए अनीन्द्रिय कहलाता है ।"1
जैन दार्शनिकों ने मन तथा इन्द्रियों के बीच कम-से-कम तीन भेद माने हैं । शरीर में इन्द्रियों के नियत स्थान हैं, परन्तु मन का कोई स्थान नहीं है । इन्द्रिय 'बहिर्मुखी' हैं और केवल बाह्य वस्तुओं को हौ ग्रहण करते हैं, परन्तु मन 'अन्तमुंखी' होता है और केवल भीतर की स्थिति को ही समझता है, इसलिए मन एक विशिष्ट वस्तु है और यह अन्तःकरण कहलाता है । प्रत्येक इन्द्रिय वस्तुओं को विशिष्ट रूप से ग्रहण करता है, परन्तु मन सभी इन्द्रियजन्य वस्तुओं को ग्रहण करने में समर्थ होता है। मन की इस क्षमता का एक कारण है इसका सूक्ष्म होना । इसलिए मन को सूक्ष्म इन्द्रिय भी कहते हैं ।
ऊपर इन्द्रिय तथा मन में जो भेद बताया गया है, उसकी स्पष्ट चर्चा तत्वार्थ सूत्र' तथा तत्वार्थसूत्र माध्य' में भी देखने को मिलती है। विद्यानन्द कहते हैं, मन को इसलिए विशिष्ट माना गया है कि यह इन्द्रियों से भिन्न है । उनके मतानुसार, ज्ञानप्राप्ति का साधन होने से मन को यदि ज्ञानेन्द्रिय माना जाता है, तो अनुमान प्रक्रिया से ज्ञान प्राप्ति में सहायक होनेवाले धुएं को भी ज्ञानेन्द्रिय मानना चाहिए।' तात्पर्य यह कि मन को ज्ञानेन्द्रिय मानना उसी प्रकार अयुक्त है जिस प्रकार न्यायिक अनुमान में हेतु पद को ज्ञानेन्द्रिय मानना । इस तर्क की कमजोरी के बारे में एम० एल० मेहता लिखते हैं: "विद्यानन्द का यह तर्क केवल उसी मनोवैज्ञानिक की मान्यता का खण्डन कर सकता है जो मन को एक सामान्य ज्ञानेन्द्रिय मानता है। धुएं की बात निराली है, क्योंकि यह वस्तु है, आत्मा का साधन नहीं है। ज्ञानेन्द्रिय आत्मा का साधन होना चाहिए, क्योंकि आत्मा से ही वस्तुबोध होता । धुआं बाह्य इंद्रियों द्वारा अनुभव की जाने वाली सामान्य वस्तु है । इसलिए मन की स्थिति सामान्य बाह्य ज्ञानेन्द्रियों की तरह नहीं है। इसे हम धुएं की तरह की वस्तु भी नहीं मान सकते। यह सुख, दुःख
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1. hifafa'. 1.14
2. ranger', II.15
3. 'तत्वार्थ सूत्र भाष्य', 1.14
4. 'तत्त्वार्थ-क्लोक-वातिक', I1.15