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मन
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मन के बारे में जैनों के विचार अन्य भारतीय दर्शनों के विचारों से भिन्न हैं। जैन मन को ज्ञानेन्द्रिय नहीं मानते । अन्य सभी दर्शनों में मन को एक ज्ञानेन्द्रिय माना गया है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार, सुख तथा दु:ख के अनुभव के लिए अन्तःकरण की आवश्यकता होती है, और वही मन है । मीमांसा में भी मन को अन्तःकरण माना गया है । आत्मा तथा इसके कार्यकलापों के ज्ञान के लिए मन स्वतंत्र रूप से कार्य करता है, किन्तु बाह्य पदार्थानुभूति के लिए मन ज्ञानेन्द्रियों के साथ सहयोग करता है । मूल सांख्य मत भी यही है। इसमें मन के दो प्रकार के कार्य महत्त्व के माने गये हैं संवेदक तथा चालक के कार्य । अत: मन ज्ञानेन्द्रिय तथा प्रेरक दोनों के कार्य करता है । वेदान्त में भी मन को अन्तःकरण माना गया है।
जैन दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शनों में महत्त्व का भेद यह है कि ज्ञानमीमांसा के बारे में दोनों के विचार परस्पर-विरोधी हैं। अन्य भारतीय दर्शनों में इन्द्रियों के वस्तुओं के साथ के सम्पर्क से प्राप्त ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है और जहां इन्द्रिय तथा वस्तुओं का प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित नहीं हुआ है फिर भी उसकी प्रामाणिकता सिद्ध की जा सकती है, ऐसा ज्ञान पंचेन्द्रियों के अलावा अन्य इन्द्रिय द्वारा प्राप्त माना गया है। एक संगत सिद्धांत को जन्म देने के लिए उन्होंने पांच इन्द्रियों की कोटि के एक 'छठे इन्द्रिय' की कल्पना की। इस प्रकार मन को ज्ञानेन्द्रिय का दर्जा प्राप्त हुआ। उदाहरणार्थ, सुख, दुःख आदि प्रत्यक्ष अनुभूतियां हैं, परन्तु पंचेन्द्रियों में से किसी एक से भी इनकी अनुभूति नहीं होती । अतः सुख दुःख आदि की अनुभूति के लिए पंचेन्द्रियों के अलावा एक अन्य इन्द्रिय-मन-की कल्पना को जरूरी माना गया, तर्कसंगत माना गया। इसी प्रकार अनुभवातीत शान (योगजप्रत्यक्ष) की कठिनाई को पंचेन्द्रियों के अलावा एक अन्य इन्द्रिय की कल्पना करके सुलझाया जा सकता है, क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान से अनुभवातीत ज्ञान नितांत भिन्न है।
विभिन्न प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने की मन की जो क्षमता है, उसको समझाने में जन दार्शनिकों को कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि उनके मतानुसार इन्द्रिय तथा मन से प्राप्त ज्ञान परोक्ष ज्ञान है; उन्होंने इन्द्रिय तथा मन को