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अनुमान
अनुमान, जैसे कि साधारण व्यक्ति भी जानता है, 'परोक्ष रूप से हमें शान प्रदान करता है। मनुष्य के इन्द्रियों के सम्पर्क में बायी हई घटनामों से तथा उसके संचित ज्ञान की सहायता से वह य से अज्ञेय तक पहुंच जा सकता है। शेय से अज्ञेय तक का यह मार्ग उसे नया ज्ञान देता है और इस प्रकार वहशान की अपनी सीमा का विस्तार करता है। परन्तु इस सारी प्रक्रिया में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो एक संगत एवं सुदृढ़ विधि द्वारा यथार्य अनुमान की प्राप्ति में सहायक होते हैं।
इस बात में विरोधाभास भले ही दिखाई देता हो, परन्तु यह सत्य है कि जैन दर्शन तथा परम्परागत हिन्दू दर्शन प्रत्यक्ष के बारे में विपरीत दृष्टिकोण अपनाते हुए भी अनुमान की प्रकृति के बारे में समान विचार रखते हैं । जैन मत (परम्परागत) की मूल धारणा यह है कि इन्द्रियों द्वारा जो बोध होता है वह परोक्ष है और इन्द्रियों की सहायता के बिना जो बोध होता है वह प्रत्यक्ष है। इस अर्थ में मतिमान इतना व्यापक है कि उसमें अनुमिति का समावेश हो जाता है । परम्परागत हिन्दू दर्शनों में चूंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया है, इसलिए इन्द्रियगोचर ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा गया है, और प्रत्यक्ष पर आधारित अनुमान-शान को परोक्ष ज्ञान कहा गया है।
जैन दर्शन में अनुमान के दो प्रकार माने गये है :स्वार्वानुमान और परानुमान। प्रथम को विषयगत अनुमान कहा गया है और दूसरे को न्याय्य अनुमान । न्यायावतार से भी यह बात स्पष्ट होती है : "स्वयं तथा दूसरों के मान के लिए भी प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण हैं । प्रत्यक्ष तथा अनुमान की क्रियाओं की तरह इनको व्यक्त करनेवाले कथन भी उन्हीं संशाओं से जाने जाते हैं, क्योंकि इनके माध्यम से दूसरों तक जानकारी पहुंचायी जाती है। यहां उडत बाद के श्लोक हमारे संदर्भ में विशेष महत्त्व के हैं क्योंकि उनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रतिज्ञा, हेतु सहित, अनुमान की तरह महत्त्व की है। इन श्लोकों का तात्पर्य यह है कि,जैन दर्शन में अनुमान के न्याय्य स्मको व्यक्त तथा कल्पित दोनों को पूर्ण मान्यता प्रदान की गयी है। 1. ज्यावावतार', 10-13