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जैन दर्शन
सकता है तथा उसके ज्ञान में बाधाएं उत्पन्न हो सकती हैं, और इसलिए सर्वज्ञता के दावे को सिद्ध नहीं किया जा सकता । जैन इस तर्क को मिथ्या सिद्ध करते हैं। सभी तृष्णाओं के ज्ञान का अर्थ उनसे प्रभावित होना नहीं हैं। सिद्ध पुरुष होने का अर्थ ही यह है कि उस पर तृष्णाओं का कोई असर नहीं होता। इसके मलावा चूंकि, इन्द्रिय तथा मन ही आसक्ति के कारण हैं, और जब इन्द्रिय तथा मन का ही विनाश हो जाता है तो फिर सर्वज्ञ पुरुष में आसक्ति के पैदा होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
केवलज्ञान के विरोध में मीमांसक का अन्तिम प्रमुख तर्क यह है कि, चूंकि अनागत तथा अतीत का अनस्तित्व है, तो यदि उन्हें सिद्ध पुरुष में विद्यमान माना जाय तो इससे भ्रांति पैदा होगी । अतः सिद्धि बिलकुल संभव नहीं । जैन इस आपत्ति का उत्तर देते हैं : अतीत तथा अनागत का ज्ञान रखनेवाले सिद्ध पुरुष की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह अतीत को अतीत के रूप में देखता है और अनागत को अनागत के रूप में। अतः इस स्थिति में किसी प्रकार की भ्रांति पैदा नहीं होती ।
केवलज्ञान के विरुद्ध उठायी गयी विभिन्न आपत्तियों के विवेचन से इस धारणा में निहित प्रमुख तत्व स्पष्ट हो जाता है। वह तत्व यह है कि, संपूर्ण प्रगति का मर्म परमोन्नति में निहित है और ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया भी इसका अपवाद नहीं है ।
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