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________________ जैन दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि इस संदर्भ में अनुमान की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकताहेतुको स्वीकार नहीं किया जा सकता। चूंकि हेतु तथा साध्य के बीच के अनियत एवं स्थिर सम्बन्ध से अनुमान का आगमन होता है, और चूंकि साध्य के साथ हेतु अवश्य जुड़ा रहता है, इसलिए ऐसी स्थिति में सर्वज्ञत्व की खोज नहीं हो सकती, सर्वशत्व को जाना ही नही जा सकता। इसके अलावा, कठिनाई यह हैं कि इन्द्रियों से सर्वज्ञत्व को नही जाना जा सकता । इसके लिए जैनों का उत्तर है कि, यदि सर्वज्ञत्व के ज्ञान को असंभव माना जाता है तो हेतु, जोकि सर्वज्ञत्व के साथ विपरीत रूप से सम्बद्ध हो सकता है, भी असंभव है । अतः सर्वज्ञत्व के अस्तित्व का निषेध ही इसकी सत्ता को सिद्ध करता है । 68 मीमांसक इस संदर्भ में उपमान को भी निरुपयोगी मानते हैं। क्योंकि उपमान में वस्तुओं के बीच की विशिष्ट समानताओं के ज्ञान पर बल दिया जाता है, और सर्वज्ञ सत्ता के सम्बन्ध में ऐसी बात संभव नहीं हैं, इसलिए यह प्रमाण भी उपयोग का नहीं हैं । मीमांसक कहते हैं, चूंकि किसी ने भी सर्वज्ञ सत्ता को देखा नहीं है, इसलिए उसमें तथा उसकी तरह के अन्य किसी में किसी प्रकार की समानता को खोजना और भी कठिन काम हो जाता है । इस आपत्ति के बारे मे जैनों का कहना है, उपमान के बारे में सबसे महत्त्व की बात यह है कि यह वस्तुओं के बीच की समानताओं को देखता है। इसलिए यह कहना कि सर्वज्ञत्व असंभव है, न्यायोचित नही है । आगम के बारे में मीमांसकों की मान्यता है कि, वेद के वही अंश, जिनमें आदेश तथा निषेध निहित है, प्रामाणिक हैं, और इनमें किसी सर्वज्ञ सत्ता का कहीं कोई उल्लेख नही है । इसलिए सर्वज्ञत्व को स्वीकार नही किया जा सकता ! जैन इस मान्यता का विरोध करते हैं; वे प्रमाण माने जानेवाले अपौरुषेय ग्रन्थो वाली इस धारणा पर ही हमला बोल देते है। क्योंकि धर्मग्रन्थ केवल पौरुषेय हो सकते है, और उनकी रचना के लिए सर्वज्ञ पुरुषों की जरूरत होती हैं, ताकि वे 'प्रामाणिक' हों, इसलिए सर्वज्ञ पुरुषों की संभावना स्वीकार्य है । सर्वज्ञ की स्थिति में प्रर्थापत्ति वाला तर्क भी निर्णयात्मक नहीं है, मीमांसकों का कहना है । यद्यपि जिस रूप में मीमांसा दर्शन में इस तर्क को पेश किया गया है उससे सर्वज्ञत्व सिद्ध होता है, मीमांसकों का मत है कि गुरु का आवश्यक रूप से सर्वज्ञ होना जरूरी नहीं है । तार्किक दृष्टि से उन्हें इसी स्थिति को स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि वे केवल वेद को ही ज्ञान का भंडार मानते हैं । इस सम्बन्ध में जैनों का मत है कि, अर्थापत्ति का महत्त्व इस बात में है कि जब अन्य सभी प्रमाण निरुपयोगी सिद्ध होते हैं तब घटना की व्याख्या के लिए
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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