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केवलज्ञान
tries प्रथम ही यह कहते हैं कि किसी भी प्रभाग से हमें सर्वशत्य, वा इसके ज्ञान की भी प्राप्ति नहीं हो सकती । मीमांसकों द्वारा स्वीकृत प्रमाण हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, मागम, प्रर्थापत्ति और अनुपलब्धि 1 मीमांसकों के अनुसार इनसे हमें सर्वशत्व के बारे में ज्ञान भी प्राप्त नहीं हो सकता ।
प्रत्यक्ष का विस्तार इतना सीमित है कि, 'अन्यों' के संबंध में अधिक से अधिक हमें पदार्थों के स्वरूप एवं आकार के बारे में ही जानकारी मिल सकती है, और उनके सीमित ज्ञान के बारे में भी कोई जानकारी नहीं हो सकती । मतः मीमांसकों का कहना है कि सर्वश सत्ता के मन में अनगिनत विचारों का प्रत्यक्ष होना असंभव है, यह एक स्पष्ट बात है। यह बात जैनों के इस मत से भी सिद्ध होती है कि सर्वज्ञ को अतीत, वर्तमान तथा अनागत का ज्ञान होता है।
जैनों का उत्तर है कि ज्ञान या तो अनुभवातीत होता है या प्रयोगजन्य, फिर अनुभवातीत ज्ञान दो प्रकार का होता है-अपूर्ण और पूर्ण और प्रयोगजन्य ज्ञान के भी दो प्रकार हैं - इन्द्रियजन्य और इन्द्रिय-निरपेक्ष । प्रथम स्थिति का अपूर्ण अनुभवातीत ज्ञान, अवधि एवं मनः पर्याय की तरह, स्वयं सर्वशत्व की संभावना का निषेध नहीं करता, , क्योंकि उनका सम्बन्ध ऐसी वस्तुओं से होता है जिनमें रूप तथा द्रव्य होता है। दूसरी तरफ, उनमें हमें ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया में परिपूर्णता की संभावना के दर्शन होते हैं । इन्द्रिय-निरपेक्ष ज्ञान में भीतरी अनुभूति होती है, जैसे सुखमय तथा दुःखमय अनुभव, और ये स्वयं सर्वशस्व की संभावना का निषेध नहीं करते ।
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यदि यह माना जाय कि इन्द्रियानुभूति सर्वशत्व की संभावना का निषेध करती है, तो प्रश्न उठता है कि किसकी इन्द्रियानुभूति - जिज्ञासु की या अन्य किसी की । यदि यह जिज्ञासु की है, तो इसका अर्थ होगा उस क्षण की अनुभूति जब सर्वज्ञत्व के बारे में संदेह व्यक्त किया गया है, या यह संपूर्ण देश तथा काल की अनुभूति होगी। प्रथम विकल्प के बारे में जैनों का कोई विवाद नहीं है, क्योंकि यह असर्वज्ञ सत्ता के अस्तित्व का पोषक है। जहां तक दूसरे विकल्प का प्रश्न है, अतीत, वर्तमान तथा अनागत के अनुभव के बाद, या विना ऐसे अनुभव के ही, निर्णय दिया जाता है । प्रथम विकल्प का अर्थ होगा कि जो व्यक्ति सर्वशता का विरोध करता है वह स्वयं सर्वज्ञ है, और दूसरे विकल्प का अर्थ होगा कि वह स्वमताभिमानी है ।
यदि यह माना जाय कि दूसरों की अनुभूति से सर्वशत्व में अनास्था पैदा होती हैं, तो फिर भी यह तर्क अप्रामाणिक होगा, क्योंकि उस स्थिति में एक 'अन्य' व्यक्ति का सर्वशत्व के बारे में यह अनुभव भी सत्य माना जा सकता है। इसलिए प्रत्यक्ष से सर्वशत्व की संभावना का पूर्णतः निषेध नहीं होता ।
tent का कहना है कि किसी सर्व सत्ता का ज्ञान अनुमान के द्वारा भी