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________________ जैन दर्शन ज्ञान का अस्तित्व ज्ञानावरण-कर्म के केवल विनाश-युक्त अस्तित्व के कारण है । उनका कहना है कि, पूर्ण विनाश में विनाश-युक्त अस्तित्व की संभावना बनी रहती है।" केवलज्ञान की धारणा की विशेषता को इस जैन दृष्टिकोण के आधार पर समझा जा सकता है कि, मनुष्य की आत्मा, दिक्काल की दूरियों के बिना भी, सभी बातों को समझने में समर्थ होती है। इस क्षमता का सिर्फ यह तात्पर्य नहीं है कि मनुष्य अपने भावों को शुद्ध करने की 'क्रमिक क्षमता रखता है और चरम ज्ञान की प्राप्ति का उसमें संकल्प होता है। इस क्षमता का अर्थ यह है कि, मनुष्य इन्द्रिय एवं मन की सहायता के विना भी ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है । इन्द्रिय तथा मन को ज्ञानप्राप्ति के मार्ग की बाधाएं माना गया है, और इसलिए आदमी की मान्य नैतिक शिक्षाएं तथा इन्द्रिय एवं मन का नियंत्रण अन्ततोगत्वा बाधाओं के स्रोत - इन्द्रिय एवं मन को दूर हटाने पर निर्भर हैं । केवलज्ञान प्राप्त करने की आत्मा की क्षमता ज्ञानावरण-कर्म द्वारा सीमित होती हैं 110 66 जब यह कहा जाता है कि आदमी में असीम ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है, तो उसका यह अर्थ होता है कि ज्ञान के मार्ग की बाधाएं पूर्ण नहीं हैं, क्योंकि यदि वे पूर्ण हैं तो फिर जीव तथा अजीव के बीच कोई भेद नहीं रह जायगा । इस सीमित क्षमता से हमें निश्चय ही ऐसा भास होता है कि इन्द्रिय एवं मन ज्ञानप्राप्ति में सहायक होते हैं । इन्द्रिय-वस्तु सम्बन्ध से प्राप्त होनेवाले सीमित ज्ञान के बारे में यह गलत धारणा बन जाती है कि इससे स्वयं ज्ञानप्राप्ति की एक 'प्रविधि' हासिल हो जाती है। इस बात को नहीं समझा जाता कि स्वयं यह गलत धारणा कर्म के कुप्रभाव के कारण है और आत्मा की क्षमता एवं शुचिता पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। जब मनुष्य यह अनुभव करता है कि पूर्ण ज्ञान के मार्ग की वास्तविक बाधाएं कर्माणु हैं, तो वह केवलज्ञान प्राप्ति की दिशा में पहला कदम रखता है, और जब वह मान्य नैतिक शिक्षा को अमल में लाता है तो उसे मानव आत्मा की क्षमता का पूर्ण आभास होता है और वह जान जाता है कि आदमी अपने जीवन के चरम उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। अन्य दार्शनिक विचारधाराओं से यह सिद्धान्त पूर्णतः भिन्न है, इसलिए इसके विरुद्ध मौलिक तर्क उठाये गये हैं, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इनमें मीमांसकों द्वारा उठायी गयी आपत्तियां मौलिक हैं, इसलिए यहां हम उन पर विचार करेंगे और देखेंगे कि जैनों ने उनके क्या उत्तर दिये हैं। 9. देखिये, 'तस्वार्थ सूत्र भाष्य' 1.30 10. बही, 1.31
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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