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________________ केवलज्ञान 65 प्रमाण से सर्वज्ञता प्रमाणित होती है।" इस धारणा की व्याख्या करते हुए मेहता लिखते है : "जिस प्रकार ताप की डिगियां होती हैं और अन्त में इनकी एक सीमा होती है, उसी प्रकार ज्ञान, जिसका कि क्रमिक विकास होता है, अपने मार्ग की विविध स्तरों की बाधाओं को दूर हटाने हुए उच्चतम सीमा पर पहुंच जाता है। यह है सर्वज्ञता, जब कर्म की सभी प्रकार की बाधाओं का पूर्णतः विनाश हो जाता है।" ___ यह एक ध्यान देने योग्य बात है कि केवलज्ञान की चर्चा केवल ज्ञानमीमांसा के संदर्भ में ही नहीं की गयी है। उद्दिष्ट मानवीय आदर्श की चर्चा के संदर्भ में भी इस धारणा को महत्त्व दिया गया है । अर्थात्, नैतिक दृष्टि से भी इसके महत्त्व को स्वीकार किया गया है। इसी संदर्भ में हम कर्म सिद्धांत तथा बाधाओं को हटाकर प्राप्त किये गये केवल ज्ञान के परस्पर सम्बन्ध को समझ सकते हैं और परिणामत: ज्ञानमीमांसा तथा नीतिशास्त्र के चरमोद श्य में एकरूपता देखते हैं। जैनों के कर्म-सिद्धात के अनुसार, मोहनीय कर्म के संपूर्ण विनाश के कुछ समय बाद और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मों के विनाश के बाद ही सर्वज्ञत्व की प्राप्ति हो सकती है। तब कहा जाता है कि आत्मा पूर्ण रूप से दैदीप्यमान हो उठता है, और सर्वजतार के स्तर पर पहुंच जाता है और तब सभी पदार्थों के सभी पर्याय स्पष्ट हो जाते हैं । यह भी कहा जाता है कि सर्वज्ञत्व के लिए कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता। जैन परम्परा का उल्लेख करते हुए उमास्वामि भी कहते हैं कि केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञान की परिणति है। इस परम्परा के अनुसार जिस प्रकार पूर्वाकाश में सूर्योदय होने पर सितारे अपनी कांति खो बैठते है, उसी प्रकार जब केवलज्ञान का उदय होता है, तो अन्य प्रकार के मान-मति. प्रत अवधि तथा मनःपर्याय लुप्त हो जाते हैं। जैसा कि स्वाभाविक है, उमास्वामि परम्परागत विचारों का समर्थन करते हैं। उनका तर्क है कि, कानावरण कर्म के पूर्ण विनाश के बाद केवलज्ञान का उदय होता है. जबकि अन्य चार प्रकार के 4. 1. 1.16 5. 'आउटलाइन्स ऑफ जन फिलॉसफी',१० 100 6. 'द न्यायावतार', 28 के अनुसार : "प्रमाण का परिणाम है अज्ञान-निवर्तन, केवलज्ञान का है परमसुम्य और समभाव, और शेष प्रकार के ज्ञान का है आदानहान-धीः।" 7. देखिये, 'तत्वार्थसूत्र',X.1 और भाष्य और देखिये, 'स्थानागसूत्र', 226 8. देखिये, 'तत्त्वार्थसूत्र', 1.30 तथा भाष्य और देखिये, 'आवश्यकनियुक्ति,77
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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