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________________ केवलज्ञान 11 जैन दर्शन की एक विशिष्टता है उसका केवलज्ञान का सिद्धान्त । इसे प्रत्यक्ष ज्ञान या तत्क्षण ज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञान की परिभाषा दी गयी है कि यह परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्व-भाव-ज्ञापक, लोकालोकविषय तथा अनन्तपर्याय होता है।' इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की प्रगति में सर्वज्ञता का एक ऐसा स्तर आता है जब उसे बिना किसी बाधा के यथार्थता का पूर्ण अन्तर्ज्ञान हो जाता है । चूकि जैन दर्शन की आधारभूत मान्यता यह है कि इन्द्रिय तथा मन 'ज्ञान के स्रोत' न होकर सिर्फ 'बाधा के स्रोत' हैं, इसलिए स्पष्ट है कि सर्वज्ञ का स्तर दिक् तथा काल की सीमा के परे का है। अतः सर्वज्ञता एक ऐमी पूर्ण अनुभूति है जिसके अन्तर्गत दिक्काल को सीमित विशेषताओं वाले अनुभवों का समावेश नहीं होता। केवलज्ञान की श्रेष्ठता का आधार यह है कि, मति तथा श्रत के विषय सभी पदार्थ हैं, परन्तु इनमें उनके सभी रूपों का निरूपण नहीं होता (असर्व-द्रव्येषु असर्व-पर्यायेषु); अवधि के विषय केवल भौतिक पदार्थ हैं, परन्तु इसमें उनके सभी पर्यायों का विचार नहीं होता (रूपिष्वेव द्रव्येषु पर्यायेषु); अवधि द्वारा प्राप्त भौतिक पदार्थों का अधिक शुद्ध एवं अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञान मनःपर्याय है; और केवलज्ञान का विषय सभी पदार्थ हैं और इसमें उनके सभी पदार्थों का विचार होता है (सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यायेषुच)। ___ भारतीय ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से केवलज्ञान की यह धारणा इस माने में विशिष्ट है कि इसे इन्द्रिय तथा मन की बाधाओं को शन:-शनैः दूर हटाकर प्राप्त किये गये संपूर्ण ज्ञान का चरमोत्कर्ष कहा गया है । जैसा कि प्रमाण मीमांसा में कहा गया है : "ज्ञान के क्रमिक विकास की चरमोन्नति की आवश्यकता के 1. 'तत्त्वार्थ सूत्र', 1-30 और भाष्य 2 वही, 1.27-30 और भाष्य 3. यह इस माने में विशिष्ट है कि अन्य सभी भारतीय दर्शनी में इन्द्रिय तथा मन को उस प्रकार बाधाए नही माना जाता जिस प्रकार जैन दर्शन में इन्हें पूर्ण ज्ञान के मार्ग की बाधाएं माना जाता है।
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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