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श्रुतज्ञान
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धर्म साहित्य को अथवा शाब्दिक ज्ञान को श्र ुतज्ञान कहते हैं । श्रत शब्द का अर्थ है सुना हुआ । श्रतज्ञान एक प्रकार का परोक्ष ज्ञान है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है । यह धर्मग्रन्थों एवं ज्ञानी तथा अनुभवी व्यक्तियों के शाब्दिक उपदेशों से प्राप्त किया गया अप्रत्यक्ष ज्ञान है। इस संदर्भ में तातिया एक महत्त्व की बात बताते हैं; वह श्र ुतज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रतिबन्धों की चर्चा करते हुए लिखते हैं: "व्यावहारिक शब्द-शान और उनके सही इस्तेमाल की जानकारी
ज्ञान के लिए आवश्यक प्रतिबन्ध हैं । अन्य शब्दों में भाषाज्ञान का सचेतन उपयोग तज्ञान का अत्यावश्यक प्रतिबन्ध है । वह ज्ञान, जो शब्दों में आबद्ध होने पर भी ज्ञाता द्वारा सचेतन रूप से शब्द प्रयोग में इस्तेमाल नहीं होता श्र तज्ञान नहीं अपितु मतिज्ञान (इन्द्रियज्ञान) कहलाता है ।"1
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जैन परम्परा के अनुसार आरंभ में श्रुतज्ञान का अर्थ था : "धर्मग्रन्थों में निहित ज्ञान । "" धीरे-धीरे इसका अर्थ हो गया "धर्मग्रन्थों का ज्ञान" । इसके दो भेद हैं- अगवा और अंगप्रविष्ट । अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत 12 श्र तांगों का समावेश होता है। जो रचनाएं बाद के जैनाचार्यों ने रची हैं और जिनकी संख्या बारह से अधिक हैं, अंगबाह्य कहलाती हैं अन्य शब्दों में, अक्षरों के विविध संयोजनों के अनुसार अतों की संख्या अनगिनत है । आवश्यकनियुक्ति के अनुसार, तों की निश्चित संख्या बताना संभव नहीं है, क्योंकि उनकी संख्या अक्षरों तथा उनके विविध संयोजनों की संख्या के बराबर है। इस ग्रन्थ में इनकी
प्रमुख विशेषताएं बतायी गयी हैं। ये हैं : अक्षर, संशिन्, सम्यक्, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और इनके विपरीत छह प्रकार के अंगप्रविष्ट; जैसे अनक्षर, असं शिन्, इत्यादि । परन्तु इस ग्रन्थ में इनके बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती। लेकिन नवीसूत्र में हमें चौदह श्रतभेदों के बारे में स्पष्ट एवं विस्तृत 1. 'स्टडीज इन जैन फिलॉसफी', पू० 49-50
2. 'स्थानांगसूa', 71
3. 'तस्वार्थसूव भाष्य', 1.20
4. 17, 18
5. 19