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जैन दर्शन
विवेचन देखने को मिलता है। इनमें से केवल चार श्रुतभेद, और उनके विपरीत भेद, दार्शनिक दृष्टि से महत्त्व के हैं, इसलिए यहां हम उनकी ही चर्चा करेंगे ।
अक्षरत के तीन भेद हैं: संज्ञाक्षर अक्षरों के आकार पर आश्रित है, थ्यंजनाक्षर अक्षरों की ध्वनि पर आश्रित है और जो श्रुतज्ञान पंचेन्द्रियों तथा मन के माध्यम से प्राप्त होता है वह लब्धाक्षर है। जाहिर है कि प्रथम दो में भौतिक लक्षणों का इस्तेमाल होता है-लिपि के लिखने में और प्रयुक्त शब्दों के व्यवहार में । इसलिए इन्हें प्रव्यवत कहते हैं। तीसरे भेद को भावभत' कहते हैं ।
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संज्ञित तीन प्रकार के ज्ञानकर्म के अनुसार तीन वर्गों में बांटा गया है : (1) भूत, वर्तमान और भविष्य का विचार करनेवाला तार्किक चितन; (2) वर्तमान का बोध जिससे जीव की रक्षा या हत्या के लिए क्रमशः उचित या अनुचित कर्म में भेद करने की क्षमता पैदा होती है; और ( 3 ) सम्यक् धर्मग्रन्थों के ज्ञान से पैदा होनेवाला बोध । #
सम्पत के अन्तर्गत आचारांग, सूत्रकृतांग आदि जैन धर्मग्रन्थों का समावेश होता है और मिध्याध त के अन्तर्गत वेद तथा महाकाव्यों आदि गैर-जैन धर्मग्रन्थों का समावेश होता है ।
तीन प्रकार के मन के अनुसार असंधि त के भी तीन भेद हैं। तीन प्रकार के मन हैं : अपूर्ण विकसित मन, पूर्णतः अविकसित मन और विकृत मन ।
श्र ुतज्ञान को मतिज्ञान से श्रं ष्ठ माना जाता है, क्योंकि मतिज्ञान का सम्बन्ध केवल वर्तमान से है, यानी ऐसी वस्तुओं से है जो इन्द्रिय एवं मन के बोध के समय विद्यमान होती हैं, जबकि श्र ुतज्ञान भूत-वर्तमान भविष्य से सम्बन्धित होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्मग्रन्थों में ऐसा ज्ञान निहित होता है जो
कालिक सत्य होता है। इसलिए "श्रुतज्ञान के बारे में कहा जा सकता है कि यह परिपूर्ण स्वरूप के मतिज्ञान द्वारा प्राप्त उच्चतम एवं अति विकसित स्तर का ज्ञान है। यह मतिज्ञान पर आधारित ज्ञान है और यह ऐसा सत्य ज्ञान है। जिसका आविष्कार, विकास एवं प्रत्याख्यान अत्यंत विवेकशील व्यक्तियों ने किया है । यह धर्मग्रन्थों का सत्य है; इसकी पवित्रता अखण्ड है। इस प्रकार श्रुतज्ञान अधिकृत ज्ञान है; इसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है ।""
6. 'नन्दीसूत 38
7. वही, 39
8. बही
9. एच० एस० भट्टाचार्य, 'रियल्स इन द जैन मेटाफिजिक्स' (बम्बई : द सेठ शांतिदास खेतसी चैरिटेबल ट्रस्ट, 1966), पु० 300-301