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________________ 57 भतिज्ञान होना चाहिए ।" सर्विसिहि में अपाय की परिभाषा दी गयी है : "विशिष्ट गुणों के बोध के कारण सत्य प्रकृति का होनेवाला बोध।" कुछ जैन दार्शनिकों ने अपाय के बारे में कुछ भिन्न प्रकार से भी विचार किया है । उनके मतानुसार, अपाय के स्तर में सिर्फ अविद्यमान गुणों का ही पृथक्करण होता है, और विद्यमान गुणों का स्पष्ट निर्धारण अगले स्तर--धारणा में होता है। कुछ अन्य दार्शनिकों ने इस मत को दोषपूर्ण कहकर इसकी आलोचना की है । इस आलोचना का मूलाधार यह है कि कुछ गुणों के पृथक्करण की प्रक्रिया में ही कुछ अन्य गुणों को ग्रहण करके क्रिया सम्पन्न होती है। यह मत कि स्पष्ट गुणों को अपाय स्तर के अन्तर्गत स्वीकारा जाता है, जैनों की व्यापक ज्ञानमीमांसा के साथ ताकिक दष्टि से मेल खाता है। इसके अनुसार, बाधक तत्त्वों को अलग कर देते ही अपने-आप ज्ञान का अवतरण होता है। धारणा : इस स्तर में गोचर ज्ञान का विकास पूर्ण हो जाता है। तीसरे स्तर में उपलब्ध गोचर निर्णय की धारणा से ही वह गोचर ज्ञान में बदल सकता है। इस निर्णय को धारण करना ही धारणा की विशिष्टता है। ___ज्ञान के बारे में सामान्य रूप से हम यह कह सकते हैं कि, यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें विभिन्न विषयों का तथा विभिन्न प्रकार के निर्णयों का संयोजन होता है। परिणामतः शुरू में जब नये ज्ञान का कोई अंश ग्रहण किया जाता है, तो केवल विकार पैदा होता है, संगृहीत ज्ञान के प्रकाश में इसकी पहचान होती है, यह जाना जाता हैं कि वह ज्ञानांश संगृहीत ज्ञान का ही एक अंश है या उससे सम्बन्धित है । अत: गोचरता का एक उद्देश्य यह भी हो सकता है कि जो पहले से सीखा गया है उसे स्मृति में धारण किया जाय । इसी अर्थ में धारणा को गोचर ज्ञान की निष्पत्ति माना जाता है। नन्दीसूत्र के अनुसार, धारणा एक ऐसी क्रिया है जिसके अन्तर्गत गोचर निर्णयों को अनेक क्षणों के लिए ग्रहण करके रखा जाता है। उमास्वामि के तस्वार्षसूत्र भाष्य में धारणा का विश्लेषण तीन स्तरों में किया गया है। प्रथम स्तर में ग्राह्य वस्तुओं के गुणों का स्पष्ट निर्धारण होता है, दूसरे स्तर में इस बोध को धारण किया जाता है और तीसरे स्तर में उसी जानकारी को भविष्य में पहचानने की क्षमता पैदा होती हैं। बोध के मनोविज्ञान की दृष्टि से इस मत की सारगभिता विशेष महत्त्व की है। क्योंकि यदि शान में धारणा की कोई उपयोगिता है, तो इसके अन्तर्गत मस्तिष्क की याद करने की ममता का भी समावेश होना चाहिए । और याद करना तभी संभव होगा जब किसी नयी ग्रहण की गयी बात की पूर्वज्ञात बात के साथ पहचान होगी। एक 7. 'सर्विसिद्धि', I. 15 8. 'नन्दीसूब',35 9. 'तत्वार्यसूत्र भाष्य', I. 15
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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