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________________ जैन दर्शन 56 जानता कि यह किसकी आवाज है। ईहा में वह आवाज के स्वरूप को पहचानता है।" ईहा के स्तर में अनुभूति के विशिष्ट स्वरूप को समझने की मन द्वारा जो कोशिश की जाती है, उसके बारे में एक अन्य जैन ग्रन्य ने कहा है : "अवग्रह से उस वस्तु के बारे में केवल आंशिक बोध ही होता है, परन्तु ईहा से शेष का बोध होता है और उस वस्तु के विशिष्ट गुण के निर्धारण की चेष्टा होती है। चूंकि उपयुक्त व्याख्या के अनुसार ईहा का महत्त्व इस बात में है कि इसके अन्तर्गत इन्द्रियानुभूति के स्वरूप को समझने का पुन: प्रयत्न किया जाता है, इसलिए एक जैन दार्शनिक इसकी परिभाषा देते हैं : "इन्द्रियगोचर वस्तु के विशिष्ट निर्धारण का प्रयत्न ।" इस परिभाषा में वस्तु का अर्थ सम्बन्धित भौतिक वस्तु नहीं है, बल्कि चेतन-वस्तु है, वह अनुभूति है जिसका विश्लेषण किया जाना है। उस 'स्रोत' यानी वस्तु की पहचान जहां से विकारों का उद्भव हुआ है, अगले यानी अपाय स्तर का विषय है। इसे दूसरे स्तर के अन्तर्गत नहीं रखना चाहिए। यह महत्त्व की बात है कि जैन दार्शनिकों ने बड़ी सावधानी से ईहा तथा संशय के बीच भेद किया है । संशय की परिभाषा दी गयी है कि, यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें परस्पर विरोधी वस्तुएं स्वीकृति के लिए जोर लगाती हैं; मन सत्य तथा असत्य में भेद करने में असमर्थ होता है और इस प्रकार निर्धारण का अभाव होता है । इसके विपरीत, ईहा में प्रभावशाली विवेचन तथा व्यवस्थित विश्लेषण से सत्य तथा असत्य में स्पष्ट भेद करने का मन द्वारा सफल प्रयत्न होता है। अपाय : इस स्तर में 'विकल्पों का परीक्षण होता है; एक को स्वीकार किया जाता है और शेष को त्याग दिया जाता है। अत: इसे निश्चित बोध का भी स्तर कहते हैं । विद्यमान गुणों को स्वीकार किया जाता है और अविद्यमान गुणों को छोड़ दिया जाता है । पूर्वोल्लिखित उदाहरण में ईहा वह स्तर है जिसमें मन ध्वनि के स्रोत को पहचानने का प्रयत्न करता है । इसमें विभिन्न संभावनाओं का विश्लेषण किया जाता है। ध्वनि शंख की हो सकती है या घंटे की अन्य किसी वस्तु की । शंख की आवाज मधुर होती है, परन्तु घंटे को बजाने से जो आवाज निकलती है वह कठोर होती है.। ईहित आवाज में ऐसे किसी एक गुण की उपस्थिति से उसके स्रोत का सही-सही निर्धारण होता है। __ताकिक दृष्टि से अपाय स्तर की गोचर निर्धारणा का स्तर कहा गया है। उपयुंक्त उदाहरण में इस गोचर निर्धारणा का रूप होता है : "यह शंखनाद ही 3. 'नन्दीसूत्र',35 4. 'तत्वार्षसूत्रभाष्य', I. 15 5. पूज्यपाद देवानन्दी, सर्विसिडि', I.15 6. देखिये, 'विशेषावश्यक भाष्य', 183-184
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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