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________________ मतिकान लिए यह संभव नहीं है। पांच इन्द्रियों तथा एक मनःकी शियाओं के अनुसार अर्थावग्रह के छह भेद माने गये हैं। ___ अवाह के स्तर को तत्माणिक माना जाता है, परन्तु यह भी विचार देखने को मिलता है कि अविग्रह स्तर तक्षणिक है, व्यंजनावग्रह स्तर नहीं । कारण स्पष्ट है । व्यंजनावग्रह स्तर में, कहा जाता है कि, सम्बन्धित इन्द्रिय पर (विभिन्न प्रकार के) विकारों का निरंतर भाषात होता रहता है, और केवल इसी कारण चेतना उद्भूत होती है। एक निश्चित स्थिति में ही चेतना में हलचल पैदा होती है। चूंकि विकारों से चेतना को जागृत करने के लिए एक निश्चित कालावधि लगती है, इसलिए प्रथम स्तर को तत्क्षणिक नहीं माना जाता । जैन मतानुसार : विकारों के फलित होने के पहले अनमिनत क्षण बुजर जाते हैं। जैसे ही चेतना में हलचल शुरू होती है, अर्थावग्रह का उदय होता है । इसलिए अर्थावग्रह को तत्क्षणिक नहीं माना जाता। अर्थावग्रह निर्णयक है या अनिर्णयक, इस प्रश्न पर भी वाद-विवाद हुआ है परन्तु जब हम मतिज्ञान के विकास के विभिन्न स्तरों का विश्लेषण करते हैं तो उस पर विचार करना यहां जरूरी नहीं है। हा : व्यंजनावग्रह से जो चेतना उद्भूत होती है, उससे अविग्रह का उदय होता है, और इसलिए इन दोनों के बीच की सीमारेखा पतली एवं अस्पष्ट रहती है। और संभवतः यही कारण है कि अवग्रह के सही स्वरूप के बारे में जैन दार्शनिकों में बड़ा मतभेद रहा है। . ____तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, इन्द्रियगोचर शान के विकास के अगले स्तर में, चेतना उद्भूत होने से, मन प्राप्त विकारों पर कार्य करता है।। इसे ईहा कहते हैं । इस स्तर में विकारों के बारे में प्रदत्त जानकारी से अधिक जानने का प्रयत्न किया जाता है। उदाहरण के लिए, अवग्रह के पूर्वस्तर में ध्वनि का केवल सामान्य आभास मिल गया था और यह आभास ध्वनि-परमाणुओं के श्रवणेन्द्रिय पर एकत्र होने के कारण हुआ था। यह सामान्य आभास इस रूप में था कि, वस्तुतः यह ध्वनि-विकार पा, न कि दृष्टिविकार या अन्य कोई विकार, जो चेतना की हलचल के पीछे थे। इस अनुभूति के अधिक स्पष्ट होने का अर्थ यह है कि मन ने अपना कार्य प्रारंभ कर दिया है (यहां इसे ईहा कहते हैं) और यह ध्वनि के स्वरूप के बारे में सूक्ष्म जानकारी प्राप्त करना चाहता है-तब, उदाहरणार्थ, यह ध्वनि शंख की हो, या घंटे की या पूरी की। सभी जैन दार्शनिक इस बात के बारे में एकमत हैं कि ईहा में सामान्य बनुभूति से लेकर ग्राह्य विकारों के बारे में विशिष्ट जांच-पड़ताल तक एक मार्ग है। परन्तु हम देखते हैं कि इसी सत्यता को विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया गया है। नदीसूत्र में ईहा को अवबह से मनन करके इसकी विशिष्टता मतलाबी गयी है: "अनुभूति अथवा अवग्रह में भावमी बावाज को तो सुनता है, परन्तु नहीं
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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