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________________ मतिज्ञान 9 मतिज्ञान की परिभाषा की गयी है : "इन्द्रियों तथा मन के माध्यम से प्राप्त ज्ञान। "" जैन साहित्य में हमें मतिज्ञान के दो प्रकारों के बारे में जानकारी मिलती है। एक की प्राप्ति इन्द्रियों के सन्निकर्ष से होती है और दूसरे की मन के ani से। कुछ टीकाकारों ने तीसरे प्रकार के मतिज्ञान को भी माना है। यह ज्ञान इन्द्रियों तथा मन के संयुक्त प्रयास से प्राप्त होता है। ऊपर जिन दो प्रकार के मतिज्ञान की चर्चा की गयी है, उनसे संभवतः यह जाहिर होता है कि ज्ञानप्राप्ति में इन्द्रियों तथा मन की भूमिका को विशेष महत्व दिया गया था, क्योंकि इन्द्रियों तथा मन की सक्रियता के बिना ज्ञानप्राप्ति की कल्पना करना कठिन है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनों की केवल-ज्ञान की धारणा को अस्वीकार किया जा रहा है। यहां यही स्पष्ट किया जा रहा है कि इन्द्रियगोचर ज्ञान के विकास के विभिन्न स्तरों की चर्चा के संदर्भ में इन्द्रियों अथवा मन की भूमिका की पूर्ण उपेक्षा नहीं की जा सकती। हमारे इस मत के समर्थन में हम जैन दार्शfast द्वारा किये गये मतिज्ञान के चार भेदों का उल्लेख करते हैं। ये हैं-- अवग्रह, ईहा, अपाय या अवाय और धारणा । अवग्रह- इसका विकास दो स्तरों में होता है- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । प्रथम स्तर में सम्बन्धित वस्तु किसी एक इन्द्रिय के सम्पर्क में आती है; वस्तुगत तत्वों का इन्द्रियगोचर तत्वों में रूपांतर होने से यह क्रिया सम्पन्न होती है। उदाहरणार्थ, ध्वनिबोध के लिए सर्वप्रथम यह जरूरी है कि ध्वनि-विकार कान तक पहुंचे और इसके साथ सम्पर्क स्थापित करें। ध्वनि के स्रोत यानी सम्बन्धित वस्तु के ध्वनि तरंगों में बदल जाने से ध्वनि-विकार पैदा होते हैं, जो कान में पहुंचते हैं और ज्ञानतंतुओं की सहायता से चेतना को जन्म देते हैं। फिर इन विकारों की विशिष्ट प्रकार के विकारों के रूप में पहचान होती है। व्यंजनावग्रह को अकसर अर्थावग्रह तक पहुंचाने वाला एक आवश्यक प्राथमिक स्त माना जाता है, और अर्थावग्रह को व्यंजनावग्रह की निष्पत्ति माना जाता है । व्यंजनावग्रह पांच में से चार इंद्रियों के लिए ही संभव माना गया है; चक्षु के 1. 'weari ga,' 1. 14 2. 'नन्दीतून' 27 ‘तत्वार्थ सून' 1. 17-18
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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