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बम और ज्ञान
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देव पूर्णतः स्वीकार करते हैं, परन्तु पीरसेन की सहमह सामान्य तथा विशिष्ट के सरल वर्गीकरण के बालोचक नहीं हैं। यह विशेष रूप से कहते हैं कि जिनकी बुद्धि प्रसर है, उनके लिए यह भेव महत्व का हो सकता है, परन्तु जिनकी बुद्धि विश्लेषणात्मक नहीं है उनके लिए मान के विकास के दौर में प्रकट होनेवाली अन्तर्चेतना तथा बहिर्चेतना की यह स्थितियां अधिक महत्व रखती हैं। ब्रह्मदेव के मतानुसार जैन धर्मग्रन्थों का महत्व इस बात में है कि वे जटिल पदार्थ का उच्चतर विश्लेषण करते हैं।
नेमिचन्द्र उपयुक्त भेद को स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार महराई में उतरे बिना वस्तुगों के सामान्य गुणों के बारे में जो ज्ञान होता है वह दर्शन है और वस्तुओं के विभिन्न पहलुओं के बारे में जो सूक्ष्म मान होता है वह शान है।'
वादिदेव के मतानुसार दर्शन के दो स्तर हैं। पहले स्तर में चेतना को प्रस्तुत वस्तु का सिर्फ आभास होता है। दूसरे स्तर में वस्तुओं के सामान्य स्वरूपों की अनुभूति होती है, जिसे अवग्रह कहते हैं और यह मान का पहला स्तर कहलाता है। वास्तविक ज्ञान में प्रमेयों का व्यवस्थित विश्लेषण होता है और इसमें 'लुप्त कड़ियों को जोड़ा जाता है। अतः वादिदेव एक प्रकार से शानप्राप्ति की प्रक्रिया का विभाजन तीन स्तरों में करते हैं, यद्यपि वह इसे दर्शन तथा ज्ञान की सामान्य योजना के अन्दर ही समाहित करते हैं। ___ हेमचन्द्र ज्ञान के दो स्तरों के बीच के सजीव सम्बन्ध को भिन्न प्रकार से प्रस्तुत करते हैं। उनके मतानुसार दर्शन ही शान में बदल जाता है । दर्शन को वह ज्ञान का कच्चा माल मानते हैं, जिसे मस्तिष्क पकाता है' और ज्ञान में बदल देता है । शान शब्द का अर्थ यह है कि इससे हमें वस्तु के विशिष्ट गुणों के बारे में जानकारी मिलती है। वह दर्शन की परिभाषा करते हैं : "वस्तु की ऐसी जानकारी जिसमें उसके विशिष्ट गुणों का निर्धारण नहीं होता।" ज्ञान कोई पूर्णतः नयी और शान से असम्बद्ध चीज नहीं है । अतः हमें मान तब होता है जब हम जातिगत स्वरूपों को जातिगत पुणों के रूप में समझते हैं और वर्णन तब होता है जब विशिष्ट स्वरूपों को विशिष्ट गुणों के रूप में समझते हैं। दोनों ही आरंभ से मौजूद रहते हैं, इसलिए दर्शन में शान की सत्ता विद्यमान रहती है।
जब दर्शन तथा मान को ज्ञानप्राप्ति के स्तर माना जाता है, तो सवाल उठता है कि क्या इन दोनों के बीच कोई लौकिक सम्बन्ध है। इस संबंध में हमें जैन दार्शनिकों के तीन प्रकार के मत देखने को मिलते हैं। धर्मग्रन्थों का मत है
4. 'दुष्प-संग्रह',43 5.प्रमाणनयतत्वालोकालंकार'.11.7 6. देखिये, प्रमाण-मीमांसा' पर टीका, I. 1.26