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________________ जैन दर्शन बीरसेन ने बाह्य पदायों के जातिमत एवं विशिष्ट गुणों के बोध को शान कहा है । जब मारमन् अपने भीतर देखता है, तब वह स्वयं को जानता है, और इसे उन्होंने वर्शन कहा है। अत: दर्शन को अन्तर्मुख माना गया है और ज्ञान को बहिर्मुख । जाहिर है कि जातिगत गुणों का अनुमान तथा विशिष्ट गुणों के बोध के बीच के सामान्य अन्तर को वह स्वीकार नहीं करते। इसका कारण वह यह बताते हैं कि विशेष के विना सामान्य की धारणा तार्किक दृष्टि से संभव नहीं है और सामान्य के विना विशेष की धारणा संभव नहीं है। उनके मतानुसार, सामान्यता के विना विशिष्टता कल्पनामात्र है और विशिष्टता के बिना सामान्यता असंभव है। ___अपने ताकिक दृष्टिकोण के अनुसार वह प्रमेयों को 'जटिल' कहते हैं । यहां तक कि अनुभूति की सरलतम स्थिति में भी सम्बन्धित वस्तु द्वारा इन्द्रियों तक प्रेषित विशिष्ट गुणों का और विश्व की जटिलता का बोध होता है । यद्यपि जातिगत एवं विशिष्ट गुणों के संश्लेषण के रूप में वस्तु ग्रहणकर्ता मन के समक्ष पेश की जाती है, फिर भी दर्शन के प्रथम स्तर में वस्तु का केवल अन्तर्दर्शनात्मक बोध ही होता है। इससे विश्लेषण तथा संश्लेषण में सुविधा होती है, और दूसरे स्तर के ज्ञान में उन सम्पूर्ण वस्तुओं का बोध होता है जो बाह्य जगत् की होती हैं, विशिष्ट स्थान घेरती हैं, विशिष्ट काल की होती हैं, विशिष्ट वर्ग की होती हैं और कुछ गुणों में उसी वर्ग की अन्य वस्तुओं के समान होती हैं, इत्यादि । अतः बोध के इस दौर में मन बाहर आकर वस्तुस्थिति को ग्रहण करता है और समझता है। ब्रह्मदेव के विचार भी इसी प्रकार के हैं। उनके मतानुसार, अपने आत्मा का अनुसंधान अनुमान है और तदनन्तर का बाह्य जगत् का अनुसंधान बोध है।' ब्रह्मदेव के मत का स्पष्टीकरण करते हुए तातिया लिखते हैं : "आत्मा उसी प्रकार जानता है और सहजज्ञान प्राप्त करता है, जिस प्रकार आग जलती है और प्रकाश भी फैलाती है । एक ही चेतना उद्देश्य-भेद के अनुसार दर्शन भी है और ज्ञान भी। जब यह स्वयं समझने में प्रयत्नशील रहती है तो इसे दर्शन कहते हैं और बाह्य जगत् को समझने में प्रयलशील रहती है तो इसे शान कहते हैं। यदि यह माना जाय कि दर्शन से केवल बाह्य जगत् का और ज्ञान से केवल विशिष्ट का बोध होता है, तो ज्ञान की प्रामाणिकता ही नष्ट हो जायगी।' इस प्रकार, बीरसेन के सिवान्त के अन्तर्मुख तथा बहिर्मुख तत्त्वों को ब्रह्म 1. देखिये, पुष्पदंत के पदवंडागम' पर उनकी धवल टीका. 1. 1.4 2. 'न्यसंग्रह' पर टीका, 44 3. एन. नातिया, पूर्वो०, १.73
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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