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________________ नमानमीमांसा भान, जैसे पर बताया गया है, केवल स्व.परमाणित होता है, किए परोक्ष जो कि प्रत्यक्ष से मित्र है, ऐसामान है प्रो इन्द्रियों वामन पर माविल होता है। परोलमान ऐसा व्यावहारिक ज्ञान है जो मन सवा इन्द्रियों ारा प्रतिबद्ध होता है और सीमित होता है। इस यो प्रकार के विभाजन के अनुसार अनुमान उपमान तथा शब्द का समावेश परीक्षा के अन्तर्गत होता है। इस प्रकार, बैन दार्शनिकों के मतानुसार, मन तथा इन्द्रियों द्वारा प्राप्त शान परोक्ष ज्ञान है । अन्य भारतीय दर्शनों के मत इससे भिन्न है। सामान्यतः उनके मत हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान होता है और शेष अन्य "स्रोतों" से प्राप्त ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैन शानमीमांसा के विकास के तीसरे स्तर में यह माना गया है कि अनुभूति से (व्यवहार के लिए) प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है, यद्यपि मान्यता यही रहती है कि मन द्वारा प्राप्त ज्ञान परोल होता है। जैन ज्ञानमीमांसा के विकास के इस दौर की विशेषता यह है कि, इंन्द्रियजन्य अनुभूति से प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है, यह मानने से यह ज्ञानमीमांसा अन्य भारतीय दर्शनों की पंक्ति में बैठ गयी है। जैन शब्दावली के अनुसार, मति तथा श्रत को प्रत्यक्ष माना जाने लगा, क्योंकि इनकी प्राप्ति इन्द्रियों द्वारा संभव है। तत्वादून में इसे संव्यवहारिकप्रत्यक्ष कहा गया है। 1 मोहनलाल मेहता का मत है कि इस तीसरे स्तर पर इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान मानने वाले भारतीय दर्शन के सामान्य प्रवाह का प्रभाव पड़ा है। उनका कहना है कि बाद के जैन दार्शनिकों ने भी लौकिकप्रत्यक्ष के नाम पर इसी दृष्टिकोण को अपनाया है। उनके अनुसार इस तीसरे स्तर का सार-संक्षेप है : अवधि, मनःपर्याय तथा केवल-भान वस्तुतःप्रत्यक्ष हैं, श्रुतमान सदैव परोक्ष रहता है; इन्द्रियजन्य मति-भान वस्तुतः परोक्ष है, परन्तु व्यवहार के लिए इसे प्रत्यक्ष माना जाता है और मनजन्य मति-ज्ञान सदैव परोक्ष होता है। ____ अन्त में, जैन शानमीमांसा की विशेषता यह है कि इसमें एक और केवल एक ही प्रकार के प्रत्यक्ष एवं यथार्यशान को माना गया है, और वह है केवलभान । इसी अर्थ में इसे पारमार्षिक-प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। चूंकि इन्द्रियों तथा मन के कार्यों को शामप्राप्ति के मार्ग में बाधक माना गया है, इसलिए अवधि-शान तथा मनःपर्याय-शान को एक विशिष्ट अर्थ में ही प्रत्यक्षा माना गया 20. देखिये, 'मन्दीसूत्र',4 21.1.9-12 22. देखिये, 'आउटमाइन ऑफ बन फिलॉसफी' (मनोर १.89 न मिलन सोसायटी, 1954),
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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